"इगास महोत्सव" श्री रामचद्र जी की लंका विजय के रूप में मनाया जाता है


इगास महोत्सव। दीपावली का पर्व श्री राम चद्र जी की लंका विजय के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। दीपावली प्रकाश पर्व है। उसी प्रकार इगास को भी हर्षोल्लास के साथ प्रकाश पर्व के रूप में ही मनाया जाता है। दोनों ही पर्व श्री राम चन्द्र जी से ही जुड़े हुए हैं। ये कहानी प्रचलित हैं कि बनवास से श्री राम के अयोध्या लौटने का समाचार देवभूमि उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र में ग्यारह दिनों के पश्चात पहुंचा,इस लिए गढ़वाल और कुमाऊं के लोगों ने इस को इगास के रूप में दीवाली के समरूप ही मनाया।


दीपावली के दिन भी गौपूजा की जाती है उनके सींगों,खुरों को तेल लगाकर पूजन किया जाता है।उनको गौ ग्रास भांति भांति तरह से खिलाया जाता है। इगास के दिन उन गायों और बछड़ों का भी श्रृंगार किया जाता था जो दूध नहीं दे पाती थी, उन्हें भी गौ ग्रास दिया जाता था। गढ़वाली कहावत थी_
लैंदे(दूध देने वाली) की दीवाली और बैले(न दूघ देने वाले) की इगास।
अर्थात दोनों प्रकार के गायों की पूजा अलग-अलग रूप में होती थी।


इस वर्ष इगास आठ नवंबर को है।इसको पुराने जमाने में बबूल की रस्सियां (हरी बबुला घास)बट दी जाती थी जिसके घर जितने खलने वाले बच्चे होते थे। चीड़ पेड़ की लीसा वाली (झिरकिले छिल्ले) लकड़ी की तिलियां बारीक बना कर रस्सियों से बांध दी जाती हैं। जिन्हें दोनों तरफ जला कर घुमाया जाता है। गाजे बाजों की धुन पर नाचते और गाते हैं। यह दृश्य पर्वतीय क्षेत्र की पहाड़ियों पर जगमगाते हुए भैलौ( जलने वाली लड़की) से दूरस्थ स्थानों तक दिखाई देता है। बड़ा मनोहारी नजारे देखने को मिलते थे।यह इसलिए कहना पड़ता है कि लोग इगास को भूलते चले जा रहे हैं। पलायन के कारण गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं। पुरानी परम्पराओं रीति रिवाजों को पाश्चात्य रीति नीति ने ढक लिया है। नवीनतम उपकरण पुराने रंग ढंग को विलुप्त करने लगे हैं। कुछ सामाजिक संस्थाएं गढ़वाली भाषा संस्कृति को खाड़ी देशों में आयोजित कर रही हैं।
उत्तराखंड महासंघ द्वारा वंगलौर में मंण्डाण प्रतियोगिता का आयोजन कर रहा है।


हमारे बीरोंखाल क्षेत्र के शीतल सिंह चौधरी ग्राम जमरिया खाटली वाले हर वर्ष इगास का कार्य क्रम करवाते हैं इसमें क्षेत्र के अधिकांश गांव अपने यहां इगास मनाते हैं। जिसमें थड़िया गीत चौंफला  रस्सा कस्सी तथा श्री राम लीला का मंचन करते हैं।भावी पीढ़ी से हम अपेक्षा करते हैं कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत को आप चाहें श्री राम के विजय पर्व पर हो अथवा वन से वापस आने पर उसे जीवंन्त बनाये रखें। श्री राम उत्तराखंड के अराध्य तो हैं वे मन मंदिर में रचे बसे हैं। इसीलिए बग्वाल और इगास का त्योंहार सदियों से मनाते आ रहे हैं। 


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