पीड़ा के स्वर


विजय सिंह बिष्ट

मैंने कितने अश्रु बहाए जीवन में,
अगर संजोया होता सागर भी भर जाता,
इतना जहर पिलाया मुझको दुनिया ने,
नीलकंठ भी पीता तो वह भी मर जाता।


यदि मैं अपनी राम कहानी पहले लिखा देता,
भला लिखने को फिर क्या रह जाता।
जितने रावण आये मुझसे लड़ने को,
एक अकेला राम भला क्या लड़ पाता।
अपनी यदि मैं राम कहानी लिख देता,
फिर लिखने को शेष भला क्या रह जाता।


प्यार किया विश्वास किया अपना माना,
जाने क्यों हर अपना धोखा दे जाता।
इतना लूटा अपने और परायों ने,
धन कुबेर का भी दीवाला पिट जाता।


झंझावात भंयकर मैंने जो झेले,
प्रलय काल का मनु शायद ही बच पाता।
जीवन गुजरा सूखे रेगिस्तानों में,
मरूस्थल में कैसे गंगाजल पाता।
यदि मैं अपनी राम कहानी लिख देता,
फिर लिखने को शेष भला क्या रह जाता।


दुर्योधन के दल में शामिल भीष्म यहां,
उन्हें मारने कितने चक्र उठाता,
लाखों द्रौपदियों की लुटती लाज यहां,
किस किस की  मैं लाज बचाने चीर बढ़ाता।


इक जैसा ही पाया मैनेलोगों को,
भले बुरे का निर्णय कैसे कर पाता।
मेरे मन मंदिर में मेरा ईश्वर है
मैं औरों के दरवाजों पर क्यों जाता।
तुम अपने हिस्से का विष मुझको दे दो,
विष पीने से ही तो शंकर बन जाता।


धोर वेदना का लावा जो अंतर में,
अंबर पर गिरता तो निश्चित फट जाता।
दीप जलाए बैठा रहता रात दिवस,
सुनते हैं यह सूरज भी तो बुझ जाता।
अपनी राम कहानी यदि मैं लिख देता,
फिर लिखने को शेष भला क्या रह जाता।


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