हर घर में जीती है एक परिणीता
परिणीता सिन्हा
जो नहीं मानती कोई सीमा रेखा ၊
वह बराबर बांटती है हर हिस्से को ၊
अंदर समेटे रहती है न जाने कितने झंझावात फिर भी नित्य मुस्कुराती है ၊
वो नित्य परिंदों को आसमान नापते देख।
अपने अंदर के पंखों की फड़फड़ाहट महसूस करती है।
पर कभी दूध उबल जाता है तो कभी दाल गल जाती है।
वह साफ करती है हर उबलन को၊
और गलेे हुए को सुधारती है।
पुनः खाली पड़ा सिलेंडर उसे मुंह चिढ़ाता है।
बचे-गुँथे हुए आटे का ख्याल बरबस उसे रुला जाता है।
वह अपनी सारी गांठों को रोटी बनाकर बेल देती है।
और उसमें डाल देती है देसी घी का सोंधापन। ताकि बासीपन छिप सके၊
इसी तरह वो परोस देती है पूरें घर का भोजन।
जो पूरे घर की भूख मिटा सके।
पर इस क्षुधा-तृप्ति के प्रकर्म में
न जाने उसके अंदर कितना कुछ बिखर जाता है।
वह तीज त्योहारों पर खूब इठलाती है।
हर रस्मों रिवाजों में अपनी महत्ता जतलाती है।
सुंदर पकवान उसकी तरह बस परोसे जाते हैं।
वह सजीव से निर्जीव में परिवर्तित होती जाती है।
एक दिन एकबारगी , जब वह बुरी- खबर उस तक आती है।
वह अंदर तक हिल जाती है।
खुद को पति विहीन पाकर,
किस्मत पर झुँझलाती है।
अपनी मांग को सिंदूर विहीन पाकर,
अंदर ही अंदर झुलस जाती है।
समाज की मनोवृति हर पल एक दंश दे जाती है।
कल तक की उसकी शुभ रेखा,
आज उसे अशुभ का मतलब समझाती है।
वह सारा दुख समेटे बस, आज भी धीमे से मुस्कुराती है।
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