कविता // बुढ़ापे के पायदान पर
मौत को स्वीकारें,
लम्बी यात्रा से थके-हारे,
झील के किनारे, दीवार के सहारे,
सांझ और सकारे,
बैठे रहते हैं अनेकों बृद्ध,
अनेकों पार्को में या सड़क के किनारे।
श्वेत वस्त्र धारे,
श्वेत केशों का पहने मुकुट,
बगुले भगत बने हैं
सब अनुभवी प्रबुद्ध,
अतीत में खोई धूमिल आंखें,
उदासी के कोहरे से घिरी,
मधुमयी रोशनी तलाशती,
थोड़ी सी भी मिल जाए कहीं से,
सहानुभूति किसी अपने पराये से,
शब्दों की मधुर चासनी में नहाई हुई।।
बस अब इतना ही काफी है,
उजड़ चुकी है मधुशाला,
कोई नहीं अब साकी है।
अब अतीत को जीते हैं,
बीती यादों का रस पीते हैं,
यादों के झरोखे समेटे हैं।
चेहरे का रंग उतरने लगा है,
चस्में का नम्बर बदलने लगा है,
रिश्तों की गरमाहट शीतल हो रही है,
मिलने जुलने की चाहत घटने लगी है,
प्रश्नों का भंडार बढ़ने लगा है,
उत्तर खो गये,घनी विस्मृतियों में,
भावनाओं का मेला छंटने लगा है,
बासी हंसी हंसते हैं अपने पराये,
झूठ कहकर खुद को छलते हैं,
गांठ के दाम गवांकर,
बाजार को देख तरसते हैं।।
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