खतरा है बड़ा मौसम में हो रहा बड़ा बदला़व

० ज्ञानेन्द्र रावत ० 
नयी दिल्ली [ उपभोग की अंधी लालसा, लोभ, मानवीय स्वार्थ और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के दुष्परिणाम स्वरूप पर्यावरण और प्रकृति को तो जो भीषण नुकसान का सामना करना पडा़ है,उसकी भरपायी होना तो मुश्किल है ही लेकिन मानवीय गतिविधियों के चलते पर्यावरण को जो नुकसान हुआ है और उससे मौसम में जो अप्रत्याशित बदलाव आ रहे हैं, उससे मनुष्य को अब खुद उसके चंगुल से निकलना मुश्किल हो रहा है। जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान ने इसमें प्रमुख भूमिका निबाही है। क्योंकि बदलते मौसम की मार से प्रकृति के साथ साथ हमारे जीवन का कोई भी पहलू अछूता नहीं बचा है। हमारा रहन-सहन,

भोजन, स्वास्थ्य और कृषि भी गंभीर रूप से प्रभावित हुयी है। कृषि उत्पादन में आ रही कमी,सूखा और भूमि के बंजर होने की गति में हो रही बढ़ोतरी इसका जीता जागता सबूत है। वैज्ञानिक शोध और अध्ययनों ने इस तथ्य को प्रमाणित भी कर दिया है। मौसमी बदलाव का असर खेतों में खड़ी फसलों के बरबाद होने के रूप में सामने आ रहा है, तापमान के असंतुलन के चलते मनुष्य संक्रमण की चपेट में है। नतीजतन शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है, वह दैनंदिन कमजोर हो रही है। बाढ़,चक्रवाती तूफान आदि आपदाओं में बढ़ोतरी उसी का नतीजा है। 
जिसका दुष्परिणाम प्राकृतिक असंतुलन और तबाही के रूप में भुगतने को हम विवश हैं। तापमान में बढ़ोतरी का दुखद पहलू यह भी है कि इसके कारण ग्लेशियर पर पर्याप्त मात्रा में बर्फ नहीं जम पाती।नतीजतन जल संकट गहरा जाता है क्योंकि जल सुरक्षा के लिहाज से ग्लेशियरों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। जाहिर सी बात है कि इन्हीं ग्लेशियरों की बदौलत ही गंगा, यमुना, सिंधु जैसी हिमालयी नदियों के साथ साथ हजारों पहाड़ झरनों और छोटी नदियों को भरपूर मात्रा में पानी मिल पाता है जिससे बहुत बड़ी तादाद में सिंचाई सुविधा और पीने के पानी की जरूरत पूरी होती है।

यदि हम दुनिया में हुए शोध- अध्ययनों पर नजर डालें तो यह साफ हो जाता है कि वह चाहे सेहत से जुड़ा मामला हो, आपदाओं से जुड़ा मामला हो या फिर कृषि से जुड़ा मामला हो, मौसम में बदलाव की मार से हमारा पूरा का पूरा जीवन चक्र प्रभावित हुए नहीं रहा है। सबसे पहले स्वास्थ्य को लें। आस्ट्रेलिया में कामनवैल्थ साइंटफिक एण्ड इंडस्ट्रियल रिसर्च आर्गनाइजेशन द्वारा किये शोध में यह खुलासा हुआ है कि एंटीबायोटिक रेजिस्टेंट वैक्टीरिया के संक्रमण से हमारी सेहत पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है।

 शोध के अनुसार बढ़ते तापमान के कारण संक्रमण बढ़ने और वैक्टीरिया में एंटीबायोटिक रेजिस्टेंट पैदा होने के पीछे जलवायु परिवर्तन के कारण आयी बाढ़ के चलते स्वच्छता सम्बन्धी समस्याओं से एंटीबायोटिक रेजिस्टेंट के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। इसमें सीवेज जो एंटीबायोटिक रेजिस्टेंट वैक्टीरिया काअहम स्रोत है, की अहम भूमिका है। बढ़ती आबादी ,बाढ़ ,सूखा जैसी प्राकृतिक आपदा और भीड़-भाड़ वाले इलाकों में सीवेज ओवर फ्लो के बढ़ते मामले इसमें प्रमुख योगदान देते हैं।

 इससे बैक्टीरिया में म्यूटेशन बढ़ता है। यह सब अस्वच्छता के कारण होता है। बच्चों में इस तरह के बैक्टीरिया संक्रमण का खतरा बढ़ रहा है क्योंकि इस तरह के सूक्ष्मजीवों में रेजिस्टेंट तेजी से पैदा होता है। पर्यावरण में बढ़ता प्रदूषण और प्रदूषित कण इस एंटीबायोटिक रेजिस्टेंट जीन बढ़ाने में और बैक्टीरिया में म्यूटेशन बढ़ाने में अपनी सक्रियता से दवाओं के असर कम करने में सहायक होते हैं। शोध इस बात के सबूत हैं कि मनुष्यों में संक्रामक रोगों में 58 फीसदी मामलों में तेजी से फैलने में जलवायु परिवर्तन अहम कारण है।

 जीव विज्ञानी प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे की मानें तो मौजूदा दौर में मनुष्यों को संक्रमित करने में सक्षम कम से कम 10,000 वायरस की प्रजातियाँ जंगली स्तनधारियों में पायी जाती हैं। इसमें जंगलों का अंधाधुंध कटान, गर्म जलवायु, तेजी से बढ़ती आबादी के कारण मानव का ऐसे जंगली स्तनधारियों से सामना बढे़गा जो जूनोटिक स्पिल ओवर यानी जंगली स्तनधारियों से मानव में वायरस का संचरण बढा़येगा। निपाह वायरस का इंसानों में फैलना इसका प्रमाण है। वैसे इस प्रक्रिया में समय ज्यादा लगता है लेकिन मौजूदा बदलते वैश्विक हालात में यह सफर आसान हो गया है। स्वच्छता, उन्नत चिकित्सा सुविधा और संतुलित जीवन शैली ही इन आपदाओं से बचाव में सहायक हो सकती हैं।

जहां तक आपदाओं से प्राकृतिक संतुलन के बिगड़ने का सवाल है,अमेरिका की प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी के जलवायु परिवर्तन विभाग के वैज्ञानिकों के शोधों से यह खुलासा हुआ है कि जलवायु परिवर्तन के कारण चक्रवात की घटनाओं में बढ़ोतरी की आशंका बलवती हो रही है। यह भी कि समुद्र के बढ़ते जलस्तर और जलवायु परिवर्तन के कारण अगले दशकों में तटीय इलाकों में भीषण चक्रवात और तूफान की घटनाओं के बीच में समय का अंतराल काफी कम हो जायेगा। तात्पर्य यह कि जो चक्रवात-तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएं कई साल में एक आध बार आती थीं, अब वे हर साल आयेंगीं या हर दूसरे -तीसरे साल आयेंगीं। यदि इस समस्या के निपटान के बारे में शीघ्र नहीं कार्यवाही की गयी या गंभीरता से प्रयास नहीं किये गये तो वह दिन दूर नहीं जबकि इस सदी के आखिर तक हर दो सप्ताह के भीतर इन आपदाओं का सामना करना पडे़।

बीते दशकों के इतिहास को देखें तो जहां तक बाढ़ का प्रश्न है, बाढ़ के 70 फीसदी से अधिक मामलों में बाढ़ का प्रमुख कारण नदियां ही रही हैं। इसका कम्युनिकेशंस अर्थ एण्ड इनवायरमेंट जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन से खुलासा हुआ है। असलियत में जमीन की तरह ही वाष्पकणों के जमने से वायुमंडल में ऊपर बादलों में जलधाराएं बन जाती हैं। इन्हें वायुमंडलीय नदी कहते हैं। इसके पीछे भी जलवायु परिवर्तन ही अहम कारण है। कारण औसत तापमान वृद्धि से वाष्प को जमने में समय काफी लग रहा है। इसके कारण बादलों में पहले की तुलना में ज्यादा वाष्प इकट्ठा होने लगी है। नतीजतन पहले की तुलना में वायुमंडलीय नदियों में जलधारा क्षमता काफी बढ़ गयी है। इसका नतीजा पानी के दबाव बहुत बढ़ जाने से बादल फटने और बाढ़ की घटनाओं में बढ़ोतरी के रूप में सामने आता है।

सबसे बड़ी चिंता कृषि क्षेत्र में दिनोंदिन घटती उत्पादकता की है जिसने किसानों की मुश्किलों को बढा़ दिया है। एक अनुमान के मुताबिक देश में तकरीबन 12 करोड़ हैक्टेयर जमीन ऐसी है जो किसी न किसी तरह की डिग्रेडेशन की शिकार है। तापमान में बढ़ोतरी के चलते फसल जल्दी पकती है लेकिन उत्पादन कम होता है। मौसम में बदलाव से खेती की लागत में भी बढ़ोतरी हो रही है। सूखा और बाढ़ के फलस्वरूप जानवरों के लिए चारे की समस्या भी तेजी से बढ़ती जा रही है। आने वाले सालों में गेंहूं की उत्पादकता 22 फीसदी और धान की 15 फीसदी तक कम हो सकती है।

 मौसम के बदलाव का यदि यही हाल रहा और खेती में आमदनी इसी तरह कम होती रही तो गांवों से शहरों की ओर पलायन बढे़गा जिससे एक ओर शहरी क्षेत्रों में जल, आवास और रोजगार की समस्याओं में बढ़ोतरी होगी और दूसरी ओर असमानता में भी बढ़ोतरी का सामना करना पडे़गा। इसलिए अब समय की मांग है कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों पर तत्काल लगाम लगे, जिससे औसत तापमान बढो़तरी पर अंकुश लगे और वर्तमान मौसम के लिहाज से 

अपनी जीवनशैली को व्यवस्थित करें,जल की बर्बादी पर अंकुश के साथ साथ वर्षा जल के संचय और उसके संरक्षण पर विशेष ध्यान दें और सबसे बड़ी बात यह कि यह सब आम जन के साझे प्रयास से ही संभव है। तभी इस समस्या के समाधान में कामयाबी की आशा की जा सकती है। इसलिये अब भी समय है। चेतो अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब हमारे हाथ कुछ भी कर पाने के लिए न समय होगा और न अवसर।

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