पितरों के मोक्ष का सरल मार्ग है-पिण्डदान
० लाल बिहारी लाल ०
मानव का जन्म बहुत सदकर्म करने के मिलता है और इस जन्म में सभी अपने ईच्छानुसार काम करते है। औऱ सभी को अपने-अपने कर्मों के हिसाब से मृत्यु के बाद परलोक में जगह मिलती है । सभी प्राणी के कमों का हिसाब या यूं कहे कि लेखा-जोखा देना पड़ता है। पर कुछ प्राणी अपने सद्कर्मों से पिछे रह जाते है. इससे उनकी आत्मा भटकती रहती है। उनके भटकती आत्मा को शांत करने या मोक्ष के लिए अपने पितरों का पिण्ड दान या श्रद्धा से श्राद्ध करते है इसलिए इसे श्राद्ध कहा गया । पिण्डदान मोक्ष प्राप्ति का सरल एवं सुगम मार्ग है। यह अश्विन माह के प्रतिपदा से शुरु होकर एक पक्ष यानी अश्विन मास के अमावस्या तक चलता है। इस दौरान अलग-अलग तिथि को पितरो का तर्पण करते है।
श्राद्ध करने का सीधा-सीधा संबंध पितरों यानी अपने दिवंगत पारिवारिक जनों का श्रद्धापूर्वक किए जाने वाला स्मरण है जो उनकी मृत्यु की तिथि में किया जाता हैं। अर्थात पितर प्रतिपदा को स्वर्गवासी हुए हों, उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही होगा। इसी प्रकार अन्य दिनों का भी, लेकिन विशेष मान्यता यह भी है कि पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाए। परिवार में कुछ ऐसे भी पितर होते हैं जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, यानी दुर्घटना, विस्फोट, हत्या या आत्महत्या अथवा विष से। ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है।
किसका श्राद्ध कौन करे ? पिता के श्राद्ध का अधिकार उसके पुत्र को ही है किन्तु जिस पिता के कई पुत्र हो उसका श्राद्ध उसके बड़े पुत्र, जिसके पुत्र न हो उसका श्राद्ध उसकी स्त्री, जिसके पत्नी नहीं हो, उसका श्राद्ध उसके सगे भाई, जिसके सगे भाई न हो, उसका श्राद्ध उसके दामाद या पुत्री के पुत्र (नाती) को और परिवार में कोई न होने पर उसने जिसे उत्तराधिकारी बनाया हो वह व्यक्ति उसका श्राद्ध कर सकता है। पूर्वजों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध शास्त्रों में बताए गए उचित समय पर करना ही फलदायी होता है। रत के प्रसंग भी इस संदर्भ में एक कहानी है- कर्ण को मृत्यु के उपरांत चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से इनकार कर दिया था।
मानव का जन्म बहुत सदकर्म करने के मिलता है और इस जन्म में सभी अपने ईच्छानुसार काम करते है। औऱ सभी को अपने-अपने कर्मों के हिसाब से मृत्यु के बाद परलोक में जगह मिलती है । सभी प्राणी के कमों का हिसाब या यूं कहे कि लेखा-जोखा देना पड़ता है। पर कुछ प्राणी अपने सद्कर्मों से पिछे रह जाते है. इससे उनकी आत्मा भटकती रहती है। उनके भटकती आत्मा को शांत करने या मोक्ष के लिए अपने पितरों का पिण्ड दान या श्रद्धा से श्राद्ध करते है इसलिए इसे श्राद्ध कहा गया । पिण्डदान मोक्ष प्राप्ति का सरल एवं सुगम मार्ग है। यह अश्विन माह के प्रतिपदा से शुरु होकर एक पक्ष यानी अश्विन मास के अमावस्या तक चलता है। इस दौरान अलग-अलग तिथि को पितरो का तर्पण करते है।
श्राद्ध करने का सीधा-सीधा संबंध पितरों यानी अपने दिवंगत पारिवारिक जनों का श्रद्धापूर्वक किए जाने वाला स्मरण है जो उनकी मृत्यु की तिथि में किया जाता हैं। अर्थात पितर प्रतिपदा को स्वर्गवासी हुए हों, उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही होगा। इसी प्रकार अन्य दिनों का भी, लेकिन विशेष मान्यता यह भी है कि पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाए। परिवार में कुछ ऐसे भी पितर होते हैं जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, यानी दुर्घटना, विस्फोट, हत्या या आत्महत्या अथवा विष से। ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है।
साधु और सन्यासियों का श्राद्ध द्वाद्वशी के दिन और जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है।जीवन मे अगर कभी भूले-भटके माता पिता के प्रति कोई दुर्व्यवहार, निंदनीय कर्म या अशुद्ध कर्म हो जाए तो पितृपक्ष में पितरों का विधिपूर्वक ब्राह्मण को बुलाकर दूब, तिल, कुशा, तुलसीदल, फल, मेवा, दाल-भात, पूरी पकवान आदि सहित अपने दिवंगत माता-पिता, दादा ताऊ, चाचा, पड़दादा, नाना आदि पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करके श्राद्ध करने से सारे ही पाप कट जाते हैं।
यह भी ध्यान रहे कि ये सभी श्राद्ध पितरों की दिवंगत यानि मृत्यु की तिथियों में ही किए जाएं।यह मान्यता है कि ब्राह्मण के रूप में पितृपक्ष में दिए हुए दान पुण्य का फल दिवंगत पितरों की आत्मा की तुष्टि हेतु जाता है। अर्थात् ब्राह्मण प्रसन्न तो पितृजन प्रसन्न रहते हैं। अपात्र ब्राह्मण को कभी भी श्राद्ध करने के लिए आमंत्रित नहीं करना चाहिए। मनुस्मृति में इसका खास प्रावधान है।किसी को कपड़े या अनाज दान करना नहीं भूलना चाहिए। यह मृत पूर्वजों की आत्माओं को खुश कर देगा। श्राद्ध दोपहर बाद के भाग में किया जाना चाहिए। इसे सुबह या दोपहर के शुरुआती भाग में नहीं किया जाना चाहिए।
किसका श्राद्ध कौन करे ? पिता के श्राद्ध का अधिकार उसके पुत्र को ही है किन्तु जिस पिता के कई पुत्र हो उसका श्राद्ध उसके बड़े पुत्र, जिसके पुत्र न हो उसका श्राद्ध उसकी स्त्री, जिसके पत्नी नहीं हो, उसका श्राद्ध उसके सगे भाई, जिसके सगे भाई न हो, उसका श्राद्ध उसके दामाद या पुत्री के पुत्र (नाती) को और परिवार में कोई न होने पर उसने जिसे उत्तराधिकारी बनाया हो वह व्यक्ति उसका श्राद्ध कर सकता है। पूर्वजों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध शास्त्रों में बताए गए उचित समय पर करना ही फलदायी होता है। रत के प्रसंग भी इस संदर्भ में एक कहानी है- कर्ण को मृत्यु के उपरांत चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से इनकार कर दिया था।
कर्ण ने कहा कि मैंने तो अपनी सारी सम्पदा सदैव दान-पुण्य में ही समर्पित की है, फिर मेरे उपर यह कैसा ऋण बचा हुआ है? चित्रगुप्त ने जवाब दिया कि राजन, आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुका दिया है, लेकिन आपके उपर अभी पितृऋण बाकी है। जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे, तब तक आपको मोक्ष मिलना कठिन होगा। इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को यह व्यवस्था दी कि आप 16 दिन के लिए पुनः पृथ्वी मे जाइए और अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों का श्राद्धतर्पण तथा पिंडदान विधिवत करके आइए। तभी आपको मोक्ष यानी स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी|
इस पक्ष में आप अपनों पितरों का तर्पण घर पर भी कर सकते हैं या देश में लगभग 65 ऐसे स्थान है जिनमें हरिद्वार,नासिक,गया,बह्र्मकपाल ,कुरुक्षेत्र, उज्जैन, अमरकंटक आदि जहां जाकर कभी भी पिण्डदान कर
सकते है। इन 65 में 4 महत्वपूर्ण है- गया, नासिक ,बह्मकपाल (बदरिनाथ) औऱ उज्जैन है। पर इन चारों में गया जो विष्णु की नगरी है सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। गया में देश विदेश से लोग आते है अपने पितरो के तर्पण एँव पिण्डदान कराने । यह पितरों के मोक्ष का पावन पक्ष है।इस साल पितृपक्ष (श्राद्ध) 29 सितंबर से 14अक्टूबर तक है।
इस पक्ष में आप अपनों पितरों का तर्पण घर पर भी कर सकते हैं या देश में लगभग 65 ऐसे स्थान है जिनमें हरिद्वार,नासिक,गया,बह्र्मकपाल ,कुरुक्षेत्र, उज्जैन, अमरकंटक आदि जहां जाकर कभी भी पिण्डदान कर
सकते है। इन 65 में 4 महत्वपूर्ण है- गया, नासिक ,बह्मकपाल (बदरिनाथ) औऱ उज्जैन है। पर इन चारों में गया जो विष्णु की नगरी है सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। गया में देश विदेश से लोग आते है अपने पितरो के तर्पण एँव पिण्डदान कराने । यह पितरों के मोक्ष का पावन पक्ष है।इस साल पितृपक्ष (श्राद्ध) 29 सितंबर से 14अक्टूबर तक है।
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