पर्यावरणीय ख़तरों से ऊपर उठकर अब ठोस कदम उठाने की जरूरत
० राम भरोस मीणा०
आज समूची दुनिया पर्यावरणीय खतरों से जूझ रही है। जीवाश्म ईंधन आज पर्यावरणीय संकट की अहम वजह है। जीवाश्म ईंधन के साथ हमें बारूद बनाने तथा अनावश्यक प्रयोगों पर भी खुलकर प्रतिबंध लगवाने की बेहद जरूरत है क्योंकि धरती को बचाने के लिए पर्यावरणीय प्रदूषण को बढ़ावा देने वाले सभी कल-कारखाने, अनुसंधानों, प्रशिक्षण केन्द्रों को त्याग कर पर्यावरण संरक्षण के सभी क़दम उठाना बहत ही आवश्यक है।
इन सभी प्रशनों को देखते हुए यह साफ़ हो जाता है कि विकास शब्द के साथ ही विनाश प्रारम्भ हुआ है। लेकिन विकास सभी को दिखाई दे रहा है लेकिन विनाश की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं है। सबसे बडी़ बात यह है कि महज़ तीन से चार दशकों में इस विकास ने आगे बढ़ कर इंसान को विकास की परिभाषा बदलने के लिए मजबूर कर दिया है। इसको लेकर आज दुनिया का प्रत्येक देश यह सोचने को मजबूर हों गया है कि इसके पीछे है कौन?जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अन्य देशों पर इस बाबत दबाव बनाने में भारत।सफल होता दिखाई दे रहा है।।
काप - 28 वार्ता में पर्यावरण संरक्षण के साथ बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस कम करने ,जीवाश्म ईंधन (कोयला , तेल, गैस) के उत्पादन और उपभोग , दोनों को कम करने के साथ साथ सभी मेजबानी कर रहे विकसित देशों से इसमें अर्थ के साथ- साथ सहयोग तथा सहमति की आशा दिखाई देने लगी है। वहीं संयुक्त राष्ट्र सचिव एंटोनियो गुटरेस ने कहा है कि धरती को बचाने के लिए ऊर्जा संरक्षण पर काम करना होगा क्योंकि हमारे पास यह आखिरी समय है।
आज समूची दुनिया पर्यावरणीय खतरों से जूझ रही है। जीवाश्म ईंधन आज पर्यावरणीय संकट की अहम वजह है। जीवाश्म ईंधन के साथ हमें बारूद बनाने तथा अनावश्यक प्रयोगों पर भी खुलकर प्रतिबंध लगवाने की बेहद जरूरत है क्योंकि धरती को बचाने के लिए पर्यावरणीय प्रदूषण को बढ़ावा देने वाले सभी कल-कारखाने, अनुसंधानों, प्रशिक्षण केन्द्रों को त्याग कर पर्यावरण संरक्षण के सभी क़दम उठाना बहत ही आवश्यक है।
आज सम्पूर्ण विश्व पर्यावरणीय प्रदूषण से उपजे ख़तरों से जूझ रहा है , वहीं आज देश के प्रत्येक शहर से स्वच्छ वायु एक तरह से गायब ही हो चुकी है। वहां ज़हर भरी हवाओं का बोलबाला हो गया है, जिससे आम आदमी का जीना दुश्वार हो गया है। चारों ओर धुंए के बाद ज़हर उगलतीं चिमनियां, स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती गैसें, अपशिष्टो एवं मल के साथ बहते गंदे नाले, कचरे के पहाड़ के साथ साथ आसमान में एक ऐसी चादर छा गई है जो सभी सजीव प्राणियों को निगलने को तैयार दिखाई देती है।
इन सभी पर्यावरणीय ख़तरों को देखते हुए स्वाभाविक यह प्रशन उठने लगता है कि आखिर यह खतरा मानव के सामने क्यों पैदा हुआ है। कैसे पैदा हुआ और कब पैदा हुआ है ।और तो और व्यक्ति ,समाज, सरकार तथा राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर के संगठन इसे कठोरता से क्यों नहीं ले रहे ? आखिर इसकी वज़ह क्या है ? क्या प्रकृति प्रदत्त सभी संसाधनों का दोहन कर आम व्यक्ति को जीवन जीने देंगे, क्या स्वयं विकास की परिभाषा गढ़ने वाले इन हालातों में बच सकेंगे।
इन सभी प्रशनों को देखते हुए यह साफ़ हो जाता है कि विकास शब्द के साथ ही विनाश प्रारम्भ हुआ है। लेकिन विकास सभी को दिखाई दे रहा है लेकिन विनाश की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं है। सबसे बडी़ बात यह है कि महज़ तीन से चार दशकों में इस विकास ने आगे बढ़ कर इंसान को विकास की परिभाषा बदलने के लिए मजबूर कर दिया है। इसको लेकर आज दुनिया का प्रत्येक देश यह सोचने को मजबूर हों गया है कि इसके पीछे है कौन?जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अन्य देशों पर इस बाबत दबाव बनाने में भारत।सफल होता दिखाई दे रहा है।।
काप - 28 वार्ता में पर्यावरण संरक्षण के साथ बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस कम करने ,जीवाश्म ईंधन (कोयला , तेल, गैस) के उत्पादन और उपभोग , दोनों को कम करने के साथ साथ सभी मेजबानी कर रहे विकसित देशों से इसमें अर्थ के साथ- साथ सहयोग तथा सहमति की आशा दिखाई देने लगी है। वहीं संयुक्त राष्ट्र सचिव एंटोनियो गुटरेस ने कहा है कि धरती को बचाने के लिए ऊर्जा संरक्षण पर काम करना होगा क्योंकि हमारे पास यह आखिरी समय है।
इसके लिए सहमत होना बेहद जरूरी है। राष्ट्रमंडल महासचिव पेट्रिसिया स्काटलैण्ड ने कहा है कि भारत को स्थिति को सम्हाल लेना चाहिए क्योंकि राष्ट्रमंडल कहे जाने वाले 56 देशों की आधी आबादी भारत में रहतीं हैं। यदि स्थिति यह बनती है कि भारत को आगे आने की आवश्यकता है तो हमारे सामने यह अवसर भी है । हमें अपनी श्रेष्ठता के उन अवसरों को गवाना भी नहीं चाहिए।
अब समय की मांग है कि काप 28 में शामिल देशों को चाहिए कि वो बारूद के उत्पादन के साथ उनके उपयोग पर भी प्रतिबंध लगाएं। वर्तमान में गाजा में इजरायल - हमास की जंग में इजरायल फिलिस्तीन द्वारा किए गए मिसाइलों के प्रयोग से जो वहां प्रदूषण फैला है, वह क्षेत्र विशेष तक सिमट कर नहीं रह गया है। यह सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित कर रही है जो प्रतिबंध योग्य है । ऐसे हालात में सभी देशों को सोचने को बाध्य होना चाहिए। क्योंकि इसके साथ ही जो कार्य समझौतों से हो सकें, वहां मुद्दों की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
हमें पर्यावरणीय ख़तरों से ऊपर उठकर अब ठोस कदम उठाने की जरूरत है। इसके लिए विचारधाराओं में बदलाव लाना होगा, परिभाषाएं बदलनी होंगी, संविधानिक ठोस कदम उठाने होंगे। सामाजिक व्यक्तिगत सोच बदलनी होगी, पर्यावरणीय ख़तरों से निजात पाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति और समाज को राष्ट्र को समर्पित होकर संरक्षण के कार्य करने होंगे। हमें चाहिए कि किसी भी प्रकार के वे क़दम नहीं उठाए जायें जिनसे हमारे प्रकृति प्रदत्त संसाधनों को हानि होती हों। यदि सभी राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक समान विचारधारा से सहमत होकर संरक्षण में जुटेंगे तब ही हम व हमारी धरती बच सकेंगी, इसमें दो राय नहीं है।
हमें पर्यावरणीय ख़तरों से ऊपर उठकर अब ठोस कदम उठाने की जरूरत है। इसके लिए विचारधाराओं में बदलाव लाना होगा, परिभाषाएं बदलनी होंगी, संविधानिक ठोस कदम उठाने होंगे। सामाजिक व्यक्तिगत सोच बदलनी होगी, पर्यावरणीय ख़तरों से निजात पाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति और समाज को राष्ट्र को समर्पित होकर संरक्षण के कार्य करने होंगे। हमें चाहिए कि किसी भी प्रकार के वे क़दम नहीं उठाए जायें जिनसे हमारे प्रकृति प्रदत्त संसाधनों को हानि होती हों। यदि सभी राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक समान विचारधारा से सहमत होकर संरक्षण में जुटेंगे तब ही हम व हमारी धरती बच सकेंगी, इसमें दो राय नहीं है।
टिप्पणियाँ