वायु प्रदूषण से बढ़ती मौतें बेहद चिंताजनक
० ज्ञानेन्द्र रावत ०
समूची दुनिया प्रदूषण की भीषण चपेट में है। दुनिया के 15 शहरों और दक्षिण एशिया के 18 शहरों में वायु प्रदूषण की भयावह स्थिति ने सबको हैरत में डाल दिया है। जबकि समूची दुनिया में खराब वायु गुणवत्ता के कारण हर साल तकरीब 60 लाख से कहीं ज्यादा लोग मौत के मुंह में चले जाते हैं। यहां यह भी जान लेना जरूरी है कि वायु प्रदूषण से कई जानलेवा बीमारियां यथा अस्थमा, कैंसर, हृदय रोग व फेफडे़ सम्बंधी बीमारियां पैदा होती हैं। सबसे खतरनाक बात यह है कि वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों का आंकडा़ लगातार बढ़ता ही जा रहा है।
यूनीवर्सिटी आफ लंदन के वैज्ञानिकों द्वारा किये गये शोध में इसका खुलासा हुआ है। जहां तक दक्षिण एशियाई देशों का सवाल है, यहां के विकसित शहरों में वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों का आंकडा़ डेढ़ लाख को पार कर गया है। वैज्ञानिकों ने आशंका व्यक्त की है कि एशिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के 18 शहरों में रहने वाले लाखों लोगों की मौत वायु प्रदूषण के चलते समय से पहले हो सकती है। शोधकर्ता वैज्ञानिकों ने नासा से जुटाये गयेआंकडो़ं के आधार पर प्रदूषण सम्बंधी मौतों के लिए नाइट्रोजन डाईआक्साइड, अमोनिया,
कार्बन मोनोक्साइड जैसे प्रदूषकों के अलावा हानिकारक सूक्ष्म कणों पी एम 2.5 को जिम्मेदार बताया है। वैज्ञानिकों के अनुसार भारत में देश की राजधानी सहित मुंबई, हैदराबाद,बैंगलुरू और कोलकाता आदि शहरों में पी एम 2.5 की मात्रा अत्याधिक गंभीर स्थिति में है। उस हालत में जबकि मौजूदा दौर में कडा़के की हाड़ जमा देने वाली ठंड पड़ रही है और जेट स्ट्रीम विंड चल रही हैं। दरअसल जेट स्ट्रीम विंड तूफानी ठंडी हवाओं को कहते हैं जो सर्दी के मौसम में बेहद नुकसानदायक होती हैं। ये हवायें शरीर में रक्त को जमा देने में अहम भूमिका निभाती हैं।
वायु प्रदूषण के खतरनाक स्थिति में पहुंचने के दौरान ये हवायें प्राणी मात्र के लिए मौत का सबब बन जाती हैं।यह स्थिति सर्दी के मौसम में और भयावह हो जाती है। यदि आने वाले छह दशकों में वायु प्रदूषण की यही स्थिति बरकरार रही तो लगभग 10 करोड़ से ज्यादा लोग समय पूर्व अपनी जान गंवा देंगे। गौरतलब है कि पी एम 2.5 के लम्बे समय तक संपर्क में रहने के कारण अकेले 2005 में दक्षिण एशियाई शहरों में डेढ़ लाख लोग और दक्षिण पूर्व एशियाई शहरों में तकरीब 53 हजार मौतें हुयीं थीं। वायु प्रदूषण से भारत को हर साल 114 खरब रुपये का नुकसान उठाना पड़ रहा है।
अब यह जग जाहिर है कि यदि आने वाले भविष्य में वायु की गुणवत्ता सुधारने के शीघ्र समुचित प्रयास नहीं किये गये तो मानव जीवन संकट में पड़ जायेगा। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बाबत संज्ञान लेते हुए चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि देश में प्रदूषण से जुडी़ बहुतेरी समितियां हैं, विभाग हैं, समय समय पर इस बाबत रिपोर्टें भी आती हैं लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ नहीं हो रहा है। कोर्ट ने वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग से भी पूछा कि आपने इस बाबत क्या कदम उठाये हैं। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने बीते माह इस मामले में 1985 में पर्यावरणविद एम सी मेहता द्वारा दायर एक याचिका
अब यह जग जाहिर है कि यदि आने वाले भविष्य में वायु की गुणवत्ता सुधारने के शीघ्र समुचित प्रयास नहीं किये गये तो मानव जीवन संकट में पड़ जायेगा। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बाबत संज्ञान लेते हुए चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि देश में प्रदूषण से जुडी़ बहुतेरी समितियां हैं, विभाग हैं, समय समय पर इस बाबत रिपोर्टें भी आती हैं लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ नहीं हो रहा है। कोर्ट ने वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग से भी पूछा कि आपने इस बाबत क्या कदम उठाये हैं। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने बीते माह इस मामले में 1985 में पर्यावरणविद एम सी मेहता द्वारा दायर एक याचिका
पर विचार करते हुए चेतावनी देते हुए कहा है कि अब बहुत हो गया। प्रदूषण का स्तर कम करने के लिए समाधान खोजना ही होगा। सर्वोच्च न्यायालय परिणाम देखना चाहता है। वह प्रदूषण से लोगों को मरते नहीं देख सकती। हर समय इस मुद्दे पर राजनैतिक लडा़ई नहीं हो सकती। यह आम लोगों के लिए भी जागने का समय है। सबको अपने गिरेबान में झांकना होगा कि हम प्रदूषण बढा़ने में कितना योगदान दे रहे हैं।
दक्षिण एशियाई देशों में जहां तक भारत का सवाल है, बीते साल स्विट्जरलैंड की संस्था आई क्यू एयर ने अपनी वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट में भारत को 2022 में दुनिया का सबसे प्रदूषित देश बताया था। दुनिया के सबसे प्रदूषित 50 शहरों में उस समय 39 शहर भारत के थे। हम दावे विकास के कितने भी करें लेकिन हकीकत यह है कि जब जब दुनिया के प्रदूषित शहरों की सूची जारी होती है, उसमें भारतीय शहरों का शामिल होना आम बात है। इस पर क्या हम गर्व कर सकते हैं।
यदि हम अंतरराष्ट्रीय मानकों या दिशा-निर्देशों के हिसाब से देखें तो पाते हैं कि वाकई हमारे शहरों में सीमा से बहुत ज्यादा प्रदूषण है। अब तो शहर तो शहर,गांव भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। वहां भी इस दिशा में कदम उठाये जाने चाहिए। अक्सर प्रदूषण कम करने की बाबत शहरों में ही प्रयास किये जाते हैं। जो योजनाएं भी बनती हैं वे शहर केन्द्रित ही होती हैं। जबकि उनका गांवों तक विस्तार होना चाहिए। योजनाओं का दायरा गांवों तक बढा़या जाना चाहिए। होना तो यह चाहिए कि वह चाहे राज्य हों, महानगर हों, नगर हों, कस्बा हों या गांव, उसे अपनी स्थिति के हिसाब से यह तय करना चाहिए कि उसे कब तक कितना प्रदूषण कम करना है ताकि लोग चैन की सांस ले सकें।
दरअसल वायु प्रदूषण के खतरों से बच्चे, बूढे़ और जवान कोई भी बचा नहीं है। वायु प्रदूषण जहां बच्चों के मस्तिष्क के विकास के लिए भीषण खतरा बन गया है, वहीं वह बच्चों में तेजी से बढ़ रहे अस्थमा का भी कारण बन रहा है। यदि वायु की गुणवत्ता में शीघ्र सुधार नहीं हुआ तो बच्चों में अस्थमा खतरनाक रूप ले लेगा। सिएटल यूनीवर्सिटी आफ वाशिंगटन के स्कूल आफ मेडिसिन के प्रोफेसर डा० मैथ्यू आल्टमैन के शोध से इसका खुलासा हुआ है कि वायु प्रदूषण की वजह से बच्चों की श्वांस नली सूज रही है। इसके चारो ओर की मांसपेशियां सिकुड़ रही हैं। उनमें जल्दी से कफ भर जाता है
और इससे श्वांस नली में पर्याप्त मात्रा में हवा नहीं जा पाती है। शोध में पाया गया है कि हवा में मौजूद धुएं और धूल के बारीक कण बच्चों के लिए खतरनाक साबित हो रहे हैं। इसका सबसे ज्यादा असर उन बच्चों में पाया जाता है जो कम विकसित शहरी इलाकों या पिछडे़ इलाकों में रहते हैं। ईस्ट एंजीलिया यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर जान स्पेंसर द्वारा किये अक्टूबर 2017 से जून 2019 के बीच 215 बच्चों के विजन, स्मृति, विजुअल प्रक्रिया के विश्लेषण से खुलासा हुआ कि बच्चे में संज्ञानात्मक समस्या का संबंध खराब वायु गुणवत्ता से है। स्पेंसर के अनुसार हवा में मौजूद हानिकारक बारीक कण मस्तिष्क में प्रवेश कर जाते हैं
और उसे नुकसान पहुंचाते हैं। उनके अनुसार अभी तक खराब वायु गुणवत्ता और संज्ञानात्मक समस्या के बीच के संबध का पता नहीं चल सका था। हमने पाया है कि कैसे ग्रामीण भारत के घरों में कैसे वायु प्रदूषण बच्चों की अनुभूति पर असर डाल रहा है। सपेंसर की मानें तो अनुभूति विचार, अनुभव और इंन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान और समझ प्राप्त करने की प्रक्रिया है। लम्बे समय तक बच्चे के मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव उसके जीवन को प्रभावित करता है। खराब वायु गुणवत्ता के चलते होने वाली संज्ञानात्मक समस्याएं दो साल तक के बच्चों के लिए जोखिम भरी होती हैं। यह वह समय होता है जब बच्चे के मस्तिष्क विकास की प्रक्रिया अपने चरम पर होती है।
दरअसल होता यह है कि प्रदूषण को घटाने की दिशा में अभी तक जो भी प्रयास होते हैं, वह पी एम पार्टीकल्स पर ही केन्द्रित होते हैं। ओजोन, नाइट्रोजन व अन्य प्रदूषक तत्व शामिल नहीं होते जबकि इनको भी शामिल किया जाना चाहिए। जमीनी स्तर पर योजना का क्रियान्वयन व निगरानी बेहद जरूरी है। लेकिन योजनाएं बना और निर्देश देकर कार्य की इतिश्री कर दी जाती है। सर्वेक्षण में कितना काम कहां हुआ, प्रदूषण घटाने में किसकी भूमिका क्या और कितनी रही और उसमें कामयाबी और नाकामी का प्रतिशत कितना रहा, इसका भी आकलन होना चाहिए।
दरअसल होता यह है कि प्रदूषण को घटाने की दिशा में अभी तक जो भी प्रयास होते हैं, वह पी एम पार्टीकल्स पर ही केन्द्रित होते हैं। ओजोन, नाइट्रोजन व अन्य प्रदूषक तत्व शामिल नहीं होते जबकि इनको भी शामिल किया जाना चाहिए। जमीनी स्तर पर योजना का क्रियान्वयन व निगरानी बेहद जरूरी है। लेकिन योजनाएं बना और निर्देश देकर कार्य की इतिश्री कर दी जाती है। सर्वेक्षण में कितना काम कहां हुआ, प्रदूषण घटाने में किसकी भूमिका क्या और कितनी रही और उसमें कामयाबी और नाकामी का प्रतिशत कितना रहा, इसका भी आकलन होना चाहिए।
सबसे बडी़ और महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पूरी प्रक्रिया में शोधकर्ताओं का भी सहयोग लेना चाहिए और प्रदूषण नियंत्रण का दायित्व समन्वित रूप से एक ही विभाग के अंतर्गत होना चाहिए न कि इसकी जिम्मेवारी अलग अलग कई विभागों को सौंप दी जाये। इससे आपस में विभागों में समन्वय स्थापित नहीं हो पाता और उनमें आपस में श्रेय लेने की होड़ लगी रहती है। फिर स्वच्छता हो या सर्वेक्षण, मौसमी नहीं होता। वह तो लगातार चलता रहना चाहिए। उसी दशा में सार्थक परिणाम की आशा की जा सकती है। तभी स्वच्छ हवा में सांस लेने में हम समर्थ हो सकते हैं।
यह जान लेना कि प्रदूषण सामान्य नहीं, जानलेवा है। क्योंकि हम जहरीली हवा में सांस लेने को विवश हैं। वह बात दीगर है कि प्रदूषण नियंत्रण के देश में उपाय नहीं हो रहे, यह कहना गलत है लेकिन हकीकत में जब जब प्रदूषण की अधिकता होती है, तब रोकथाम के सारे के सारे प्रयास बडे़ शहरों में ही देखे जाते हैं। हकीकत यह भी है कि हमारे देश में छोटे-बडे़ तकरीब चार हजार के आसपास से ज्यादा शहर हैं लेकिन दुखदायी यह है कि उनमें से ज्यादातर शहरों में प्रदूषण की निगरानी की व्यवस्था ही नहीं है। देश की राजधानी दिल्ली को ही लें, वहां के लोग तो जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर हैं। देश की राजधानी का पी एम 2.5 का स्तर सुरक्षित सीमा से लगभग 20 गुणा से भी ज्यादा है।
लाख जतन के बाद भी दिल्ली जहरीली हवा से निजात पाने को तरस रही है। और जहां तक राजनीतिक दलों की बात है, पर्यावरण की बात राजनीतिक दलों के लिए महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि उनके लिए यह चुनावी मुद्दा नहीं होता। कारण पर्यावरण वोट बैंक नहीं है। राजनीतिक दलों का अस्तित्व चुनाव से है। राजनीति के लिए यह बेकार की बातें हैं। यही वजह है कि वह इसे चुनावी मुद्दा नहीं बनने देते। यह कहना कि लोग जागरूक नहीं हुए हैं, वह जागरूक भी हुए हैं,पर इसमें सबकी भागीदारी जरूरी है क्योंकि यह तो व्यक्ति के जीवन से जुडा़ मुद्दा है।
इसलिए इसमें जन भागीदारी और जागरूकता आवश्यक तत्व है। इसके बिना कामयाबी की आशा बेमानी है। वायु प्रदूषण से लड़ने के लिए इसलिए गंभीरता का परिचय नहीं दिया जाना चाहिए कि उससे देश की छवि पर बुरा असर पड़ता है, बल्कि इसलिए भी कि यह सेहत के लिए बेहद खतरनाक साबित हो रहा है। यदि नेशन क्लीन एयर प्रोग्राम को सफल बनाना है तो केन्द्र सरकार को राज्य सरकारों को इसके लिए राज्य सरकारों पर दबाव भी बनाना पडे़गा कि वे अपने नगर निकायों को वायु प्रदूषण से निपटने में सक्षम बनायें। नगर निकायों की सक्रिय भागीदारी वायु प्रदूषण से मुक्ति की पहली गारंटी है। इसमें दो राय नहीं।
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