देश में तालाबों के हालात बद्तर, जिम्मेदार कौन

० राम भरोस मीणा ० 
हर वर्ष गर्मियां शुरू होते ही पानी की किल्लत जोरों से प्रारम्भ हो जाती है। कहीं पीने के पानी की समस्या है तो कहीं कृषि की सिंचाई के पानी की समस्या मुंह बाये खडी़ है। वैसे यह समस्या तो हर वर्ष दिसम्बर- जनवरी के आने के साथ ही प्रारंभ हो जाती है जो मई -जून आते-आते अपना असर दिखाने लगती है। पिछले एक - डेढ़ दशक से यह हर वर्ष विशेष रूप में दिखाई देने लगी है। जहां तक जल स्तर का सवाल है, देश में जल स्तर भी प्रति वर्ष लगातार तेजी से गिरता जा रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर इस सबका जिम्मेदार कौन है? प्रकृति, सरकार या स्वयं मानव ?

 इस समस्या पर चिंतन बहुत जरूरी है। क्योंकि यह किसी एक व्यक्ति विशेष की समस्या नहीं है बल्कि यह तो सभी की समस्या है। इससे कोई अछूता नहीं है। तात्पर्य यह कि दावे कोई कुछ भी करे, हकीकत में इसकी मार से कोई बच ही नहीं सकता। वह चाहे मध्य प्रदेश हो, छत्तीसगढ़ हो, महाराष्ट्र हो, राजस्थान हो, हरियाणा हो या राजस्थान या फिर उत्तर प्रदेश ही क्यों न हो, देश का कोई राज्य, महानगर इस समस्या से अछूता नहीं है। राजस्थान को ही लें, यहां का पश्चिमी भाग रेतीले धोरों से आच्छादित है। नहर व नदियों के द्वारा ही यहां की कृषि ने काफी उपलब्धि हासिल की है

लेकिन पेयजल की समस्या यहां हमेशा से ही भयावह रूप में मौजूद रही है। दर असल जलापूर्ति में यहां के स्थानीय निकाय हमेशा ही नाकाम रहे हैं। राज्य के पूर्वी भाग में शुद्ध जल आपूर्ति का बाधित होना कोई नयी बात नहीं है। देश में 50 प्रतिशत बांध सूख गए हैं अथवा सूखने की स्थिति में हैं। वहीं 30 प्रतिशत मई जून तक सूखने की स्थिति में आ जाएंगे। राजस्थान में 342 बांध रीतें हैं, 340 बांधों में थोड़ा ही पानी बचा है। यदि हम ज़िले विशेष की बात करें तो पाते हैं कि अरावली पर्वत मालाओं से घिरे सरिस्का की वादियों में बसे अलवर जिले के सभी 90 प्रतिशत बांध सूख चुके हैं । साथ ही सरिस्का के वन्य जीवों के सामने पीने के पानी की किल्लत भी मुंह बाये खड़ी है।

वर्तमान परिस्थितियों में राजस्थान सरकार ने मध्य प्रदेश से पानी मांगा है। हालात राज्य के किसी भी जिले के ठीक नहीं हैं। दक्षिण के राज्यों की स्थिति तो और भी बद्तर है। बंगलुरु की घटना इसकी जीती जागती मिसाल है। यहां असली समस्या पानी के प्रबंधन को लेकर है जिसपर सदैव उंगली उठती रही है। बिगड़ते हालातों में पानी की पूर्ति कैसे हो, यही सबसे बडा़ चिंता का विषय है। वह टैंकर से हो, ट्यूबवेल से हो, नहरों के द्वारा हो अथवा अन्य और किसी भी उपाय से हो, इसी में जिला प्रशासन और जलदाय विभाग उलझा रहता है और इसी उधेड़बुन में सारी मशीनरी उलझी रहतु है। 

 इसी में उलझते हुए पानी की किल्लत के मुख्य कारणों और सार्थक प्रयासों को अमल में लाने के बारे में कोई नहीं सोचता। दर असल इसके बारे में और कोई ओर सोचेगा ही क्यों? वह तो केवल और केवल अपने बारे में ही सोच सोचकर दुबले हुए जा रहे हैं। वह तो दूसरे के बारे में आखिर सोचेंगे भी क्यों ? क्यों कि हमें तो अपना ही भला - बुरा सोचना है। बाकी जायें भाड़ में यह सोच अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। यह वर्तमान का यथार्थ है। देखने को मिल रहा है कि आज वैज्ञानिक चंद्रमा पर पानी की खोज कर रहे हैं लेकिन धरती पर पानी कम हो रहा है, इसकी चिंता किसी को नहीं है।

 सबका आखिर में यही सोच रहता है कि मेरीऋजरूरत पूरी होती रहे, मुझे दूसरे से क्या मतलब। ऐसा मानकर वह अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहे होते हैं। दुख इस बात की है कि उनको पानी के मुख्य स्रोतों , नदी- नालों के बहाव क्षेत्रों में पैदा अवरोधों तथा उनके कारणों की कोई चिंता नहीं है। इस बाबत तो वह समझना ही नहीं चाहते। राजस्थान में जोहड़ - तालाबों की संस्कृति विश्व की महान जल प्रबंधन की परिचायक है। लेकिन हकीकत यह है कि सन 1980 के बाद से वहां जोहड़ एक- एक करके ग़ायब होते चले गये और आज हालत यह है कि वहां 95 प्रतिशत जोहड़-तालाब कहां ग़ायब हो गए, 

इस बाबत सब मौन हैं। और तो और जो जोहड़ आज दिखाई भी दे रहे हैं, वो अनुपयोगी हैं या यह कहा जा सकता है कि वह भू गर्भ में पानी एकत्रित करने के लायक ही नहीं बचे हैं तो कुछ गलत नहीं होगा। दूसरी तरफ नदियां जो पानी को संजोए रखतींं थीं, उनके स्वयं के कंठ सूखे हैं, वे वेंटिलेटर पर सांसें गिन रहीं हैं या कैंसर जैसी बीमारियों की जकड़ में हैं। इसके लिए स्वयं व्यक्ति या सरकार जिम्मेदार है क्योंकि उन्होंने ही उन्हें कूडे़ दान में तब्दील कर दिया है। नदियां आज स्वयं प्रजापालक नहीं, डायन बन कर रह गई हैं।

बदलते परिवेश में आज हम सबको केवल और केवल अपनी ही चिंता है। सरकारें भी अपने हित को सर्वोपरि मान योजना निर्माण में लगी रहती हैं, वह बात दीगर है कि उससे जनता का दुख-दर्द कितना दूर हो पाता है। राजस्थान के अलवर जिले में स्थित ऐतिहासिक जयसमंद बांध इसका प्रमाण है जो पानी के अभाव में हर साल सूखा रहता है, उसमें पानी लाने के लिए लाखों खर्च भी होतें है, सरकारी आदेश निकाले जाते हैं, अतिक्रमण हटाए जातें हैं,

 लेकिन इस सबके बावजूद यह बांध पिछले दो दशकों से सूखा पडा़ हुआ है। उसका दिनों दिन जल स्तर गिरता जा रहा है, विदेशी मेहमान पक्षी भी यहां आना बंद हो गये हैं। बांध के सभी जीव जंतु, कीट- पतंगें छोड़ कर चले गये हैं या मर-खप गये, इसँबाबत सरकार का मौन समझ से परे है।आखिर उसकी चिंता किसे है जो इस समस्या के स्थाई निवारण हेतु प्रयास भी करे। खैर जो भी हैं, अब समय आ गया है कि हम अपने तालाबों को बचायें, नदियों को स्वतंत्र बहने दें, वन व पहाड़ी क्षेत्रों में हो रहे वैध या अवैध खनन को रोकें, नदी के बहाव क्षेत्र को अपशिष्टो से बचाने के साथ

 जल संरक्षण के कार्यों में हम वैज्ञानिकों के साथ साथ समाज विज्ञानियों का भी हरसंभव सहयोग ले जिससे ग्राम कस्बे से लेकर देश के प्रत्येक शहर को पीने के पानी की समस्या से निजात दिलायी जा सके, तालाबों को पुनः पानी से भर सकेंआ सकें, नदियां बह सकें। अतः जल संरक्षण के कार्यों को सफल बनाने के लिए समाज व समाज विज्ञानियों कों अवश्य सहभागी बनायें ताकि तालाब जिंदा रह सकें।

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