बच्चों के व्यक्तित्व विकास के लिए जरूरी है अच्छा बचपन
० श्याम कुमार कोलारे ०
बचपन जीवन की वह अवस्था होती है जिसने वह अपने शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक आदि विकास की शुरुआत करता है। बाल अवस्था जीवन का पहला पग है और इसलिए व्यक्तित्व की भी पहली अवस्था है। यह बात ध्यान रखने की है कि शारीरिक विकास की तरह बच्चे का सामाजिक, संवेगात्मक विकास भी जन्म से ही शुरु हो जाता है, जिसका वह सामाजिक परिस्थितियों में आकर तो उनका विकास करता है।
कहावत है कि 'बच्चे के पैर पालने में ही नजर आने लगते हैं' अतः उसके बचपन से ही उसके व्यवहार का पता लगने लगता है कि वह आगे जाकर किस स्वभाव का होगा? शिशु अपने वातावरण में धीरे-धीरे सीखता है। चार या पांच मास का बच्चा को गुदगुदाओ, तो प्रसन्नता दिखाता है।
बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका घर होता है। जैसा वातावरण उसके घर का होता है उन्हीं परिस्थितियों के अनुकूल उसका व्यक्तित्व ढलता है। बच्चा जब जन्म लेता है, तो उसके चारों तरफ जो वस्तुएं हैं उनको देखता है। उसी माहौल में उसकी इच्छाएं और अनिच्छाएं जन्म लेती हैं। उसकी पसंद-नापसंद का निर्धारण होना शुरु होता है। वह कुछ पाना चाहता है, तो उसे मिल जाता है परंतु जब उसकी भावनाओं की उपेक्षा की जाती है, तो उसके कोमल मन पर इसका आघात पहुंचता है और जब बात मान ली जाती है, तो उसका मन प्रफुल्लिता से भर जाता है। हर परिवार के अपने नैतिक व सामाजिक मापदंड होते हैं उसी के अनुकूल बच्चे की आदतें परवान चढ़ती हैं।
कहावत है कि 'बच्चे के पैर पालने में ही नजर आने लगते हैं' अतः उसके बचपन से ही उसके व्यवहार का पता लगने लगता है कि वह आगे जाकर किस स्वभाव का होगा? शिशु अपने वातावरण में धीरे-धीरे सीखता है। चार या पांच मास का बच्चा को गुदगुदाओ, तो प्रसन्नता दिखाता है।
प्रसन्न तो प्रथम दिन में भी होता है। परंतु उसकी अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है। परिवर्तन तो नित्य चलता है परंतु हम उसे देर से देख पाते हैं।'होनहार बिरवान के चिकने-चिकने पात' इस कथन की पुष्टि करते हैं स्वामी विवेककनन्द और डॉ भीमराव आंबेडकर जैसे महान व्यक्ति जिनके बचपन से ही इनके विलक्षणता के चिन्ह दिखाई देते थे। तथागत बुद्ध अपबे बचपन से ही करूणा ओर दया भाव से ओतप्रोत थे, जिससे उनका यह व्यक्तित्व जीवन पर्यान्त उनके गुणों के रूप में दिखाई देता रहा। बच्चे के व्यक्तित्व विकास में उसके शारीरिक स्वास्थ्य का भी बहुत असर पड़ता है। जो बच्चे पैदायशी कमजोर या अस्वस्थ होते हैं वह बचपन से ही चिड़चिड़े और हीन भाव से ग्रसित होते हैं।
उसी भावना को लेकर उनके स्वभाव में कुछ कुंठाएं पैदा हो जाती हैं। जैसे दूसरों को सताना, अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करने के लिए देर तक रोते रहना, हट करना इत्यादि।बच्चों के स्वभाव में भिन्नता होती है। सभी बच्चे बचपन मे अपने आसपास के वातावरण एवं उसके पास व सम्पर्क में आने वाले लोगो से सब कुछ सीखते है। बच्चों के व्यक्तित्व विकास में उनके माता-पिता काम अभिभावकों का विशेष योगदान होता है। बच्चों के मां-बाप को चाहिए कि उनकी आदतों को पहचाने और उनकी बुरी आदतों को समझदारी से धीमे-धीमे आदतों को विकसित करें।
हालांकि साधारण गुणों को तो छोड़ा या अपनाया जा सकता है। परंतु स्वभाव के मूल में जो गुण या अवगुण होते हैं उनका व्यक्तित्व से दूर करना कठिन होता है। फिर भी मां-बाप का कर्तव्य है कि वह बच्चों के व्यवहार में संतुलन पैदा करें। उन पर बहुत कठोर नियंत्रण नहीं ताकि उनका मानसिक विकास रुक जाए। इसी तरह इतना लाड़-प्यार न हो कि वह बिल्कुल अनुशासनहीन हो जाए। बच्चों को इस तरह नजर रखें कि वह स्वस्थ मानसिकता के व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति बन सके। अतः एक आदर्श व्यक्ति के विकास में बचपन का समय बहुत महत्वपूर्ण होता है। उस अवस्था में बच्चा कच्ची मिट्टी के समान होता है और मन-मस्तिष्क पर कोई भी आकृति आसानी से अंकित हो जाती है और वह बहुत गहरी छाप छोड़ जाती है।
बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका घर होता है। जैसा वातावरण उसके घर का होता है उन्हीं परिस्थितियों के अनुकूल उसका व्यक्तित्व ढलता है। बच्चा जब जन्म लेता है, तो उसके चारों तरफ जो वस्तुएं हैं उनको देखता है। उसी माहौल में उसकी इच्छाएं और अनिच्छाएं जन्म लेती हैं। उसकी पसंद-नापसंद का निर्धारण होना शुरु होता है। वह कुछ पाना चाहता है, तो उसे मिल जाता है परंतु जब उसकी भावनाओं की उपेक्षा की जाती है, तो उसके कोमल मन पर इसका आघात पहुंचता है और जब बात मान ली जाती है, तो उसका मन प्रफुल्लिता से भर जाता है। हर परिवार के अपने नैतिक व सामाजिक मापदंड होते हैं उसी के अनुकूल बच्चे की आदतें परवान चढ़ती हैं।
बालक के लालन-पालन में उसकी तमाम आवश्यकताओं का ध्यान रखना चाहिए। चूंकि ऐसा न करने पर बालक के अंदर हीन भावना उत्पन्न हो जाती है। बालक का मन बहुत नर्म होता है। उसके व्यक्तित्व विकास काल में बहुत फूंक-फूंक कर बुद्धिमत्ता से व्यवहार करना चाहिए। खासतौर से एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिन गुणों की शिक्षा का हम पाठ अपने बच्चे को देते हैं उन पर हम स्वयं कितना चल रहे हैं। अगर मां-बाप बच्चे को सच बोलने की शिक्षा दे और स्वयं झूठ बोले तो उसकी कथनी में अंतर देखकर बच्चे के मन में एक अंतर्द्वन्द्व होगा कि अगर सच बोलना अच्छा है तो यह क्यों नहीं बोल रहे हैं।
बच्चे को कभी-कभी नकारा जाता है जिसमें वह अपने आप को महत्वहीन समझने लगता है। अगर वह आपसे किसी चीज की फरमाइश करता है जिसका पूरा करना आपके सामर्थ्य में न हो, तो ऐसे में उसे समझा-बुझा लें, तो वह समझ जाएगा। अगर उसे फटकारा जाएगा, तो उसमें कुंठा पैदा हो जाएगी। छोटे बच्चों के व्यक्तित्व को आवश्यक नियंत्रण से परिवर्तित किया जा सकता है। बचपन बच्चों का वह समय होता है जिसमे वह अपने परिवार में समृद्ध एवं उपयुक्त वातावरण में अपने परिवेश में घटित सभी बातों को ग्रहण करता है। इसलिए बच्चों को समुचित देखरेख और मार्गदर्शन न मिलने से बहुतसी गलत बातों को सीख लेने की संभावना भी रहती है।
बचपन में स्वच्छता और स्वस्थ आदतों के विकास पर बहुत अधिक बल दिया जाता है, क्योंकि 4-6 वर्ष की अवस्था सबसे अधिक संवेदनशील होती है अतः इस समय सीखी हुई आदतें प्रायः स्थायी होती हैं। स्वच्छता और स्वस्थ आदतें इस आयु में अच्छी प्रकार से सिखाई जा सकती हैं। किसी भी आदतों को डालने के लिए दवाव, दमनात्मक व्यवहार करना हानिकारक सिद्ध होता है। कई बार बचपन में ही बालक पर अत्यधिक कामों का बोझ होने से उनके बालपन की चंचलता को छीन लिया जाता है और वह समय से पहले बड़े हो जाते हैं। उनकी बालसुलभइच्छाओं पर रोक लग जाती है। आयु के साथ ही कुछ आदतों का समावेश व्यक्तित्व में होता जाता है।
किसी एक बच्चे की ढेरों प्रशंसा करना और दूसरे की निंदा करना भी बच्चे के भीतर द्वेष और ईर्ष्या उत्पन्न करता है। परंतु बच्चे के अंदर प्रतिस्पर्धा के लिए अच्छे लोगों की मिसालें रखनी भी चाहिए। बच्चे का लालन-पालन करना आपका कर्तव्य है। यह कर्तव्य कलात्मकता लेकर किया जाए, तो आपकी यह कृति महान व्यक्तित्व का मालिक बना सकती है। मानव मन की अनेक तरंगे बालकपन में ही पहचान लेने से बच्चे का व्यक्तित्व विकास आसान हो जाता है।
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