तिरस्कृत मां की व्यथा
डॉ• मुक्ता स्टेशन पर बैठी सत्तर वर्षीय वृद्धा खुद से हाल-बे-हाल जिसके उद्वेलित अंतर्मन में उठ रहे थे अनगिनत सवाल यह कैसा दुनिया का दस्तूर यहां अपने, अपने बन अपनों को छलते यह कैसा लॉकडाउन भावनाएं मृत्त और नदारद संस्कृति के प्रति आस्था- संस्कार नहीं रिश्तों की अहमियत और लुप्त संबंध-सरोकार इसी बीच एक महिला पत्रकार आ पहुंची उस वृद्धा के पास देख उसे उधेड़बुन में उसने प्रश्न दाग़ा उस पर क्यों बैठी हो अशांत-क्लांत खुद से बे-खबर कहां जाना है तुम्हें और कौन है तुम्हारे साथ पहले तो वह आश्चर्य-चकित निस्तब्ध, ठगी-सी मौन हो ताकती रही फिर बह निकला ह्रदय में दफ़न भावनाओं का सैलाब उसे बीमार बेटे की तीमारदारी हित रवाना कर दिया गया था धोखे से और आ गयी वह दिल्ली से मुंबई ठीक होते ही बदले कलयुगी बेटे ने तेवर भाई को कोसा मां को जली-कटी सुनायी शराब के नशे में उसे चार बार मारा ज़लील कर घर से बाहर निकाला 'जा कहीं भी भीख मांग कर खा मेरी चौखट पर मत आना लौट कर' सो! वह चाहती है दिल्ली जाना उसका एक बेटा रहता है वहां परंतु वह जानती है नहीं देगा वह अपने आशियां में उसे पनाह न ही उसे रखेगा अपने साथ ...