कविता // हाँ ! मैं गृहिणी हूँ’
स्वीटी सिंघल ‘सखी’ एक रिश्तेदार ने मेरी कविताएँ सुनकर फ़रमाया, या यूँ कहूँ कि तारीफ़ के बहाने मेरा मज़ाक़ उड़ाया। बोले, “अच्छा लिख लेती हो! पर ये तो बताओ इतना वक़्त कहाँ से लाती हो? अरे हाँ! तुम तो गृहिणी हो, घर पर ख़ाली ही तो रहती हो।” बात मेरे दिल को कुछ खली, और हमेशा की तरह अंदर से बस कविता ही निकली। जी हाँ, मैं गृहिणी हूँ, कमाती नहीं, बस घर संभालती हूँ। क्या ग़लत है जो अपने जज़्बात कविता में ढालती हूँ? जब पतिदेव चले जाते हैं अॉफिस और बच्चे अपने स्कूल, या घर पर होते हुए भी रहते हैं अपने कामों में मशगूल। तब इधर-उधर बिखरा सामान फिर क़रीने से लगाती हूँ, साथ मन में बिखरे बेतरतीब ख़्यालात समेटती जाती हूँ। कुर्सी मेज़ झाड़ते हुए जब पुरानी यादों की धूल झड़ जाती है, किसी अधूरी कविता में कुछ पक्तियाँ अपने आप जुड़ जाती हैं। खाना बनाते हुए जब पुराने ज़ख़्म सिकने लगते हैं, खुद-ब-खुद मन के कोनों में दबे शब्द पिघलने लगते हैं। जब इस्तरी करने बैठती हूँ कपड़े कई रिश्तों में सलवटें दिखाई पड़ती हैं, और सब ठीक करने की चाहत एक नई कविता गढ़ती है। धुले बर्तनों की च...