वाणी का डिक्टेटर – कबीर
- डॉ. शेख अब्दुल वहाब
एसोसिएट प्रोफेसर
तमिलनाडु
कबीर 15वीं सदी के महान संत, कवि और समाज सुधारक थे l हिन्दी साहित्य के इतिहास का दूसरा काल जिसे हम “भक्ति काल” (सं.1375 से सं.1700) के नाम जानते हैं l हिन्दी साहित्य का यह अत्यंत समृद्ध एवं महत्वपूर्ण काल अनेक दृष्टियों से स्वर्ण-युग भी कहलाता है l कबीर (सं.1455) इसी भक्ति काल के निर्गुण भक्ति धारा के ज्ञान मार्ग के प्रवर्तक थे l उन्होंने ज्ञान के द्वारा ईश्वर को पाने का मार्ग बताया l उन्होंने निराकार निर्गुण परब्रह्म की उपासना की है l ईश्वर तक पहुँचने के लिए आपने ने गुरु के महत्व को स्वीकार किया है l कबीर ने कहा –
गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागों पाय । बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो मिलाय ।।
अपने आपको काशी का जुलाहा माननेवाले कबीर रामानंद के शिष्य थे l उन पर हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मों का प्रभाव देखा जा सकता है l कबीर अनपढ़ थे l उनके शिष्यों ने उनकी वाणी को लिपिबद्ध किया l आत्मा - परमात्मा के संबंधों को (नैनों की करी कोठरी ) रहस्यवादी ढंग से स्पष्ट करनेवाले कबीर अपने समय के सच्चे समाज सुधारक थे l उन्होंने समाज की कुरीतियों, अन्धविश्वासों, मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, कर्मकांड आदि का खंडन किया l परमात्मा को अपने भीतर खोजने को कहा है l क्योंकि वह अन्तर्यामी है l
तेरा साईं तुझ में ज्यो पुहुपन में वास। कस्तूरी का मिरग ज्यो फिरि फिरि ढूंढें घास।।
अपनी विशिष्ट वाणी साधुओं की भाषा सधुक्कड़ी में ज्ञान मार्ग को प्रशस्त करनेवाले कबीर धार्मिक एकता के सच्चे प्रतीक माने जाते हैं l उन्होंने अपना जीवन समाज सुधार में लगा दिया था l कबीर और उनकी वाणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है और हर समय रहेगी , जितनी अपने समय में रही l उनके दोहे और पद आज भी छात्रों की जीभ पर थिरकते हैं l समय के मूल्य और महत्व को समझाने वाला यह दोहा देखिये :
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब।
उन्होंने सच्चे संत या सज्जन की परिभाषा दी l साधु से जाति नहीं, उसके ज्ञान के बारे में पूछने को कहा l “जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान” l कबीर ईश्वर से उतना ही मांगते हैं जितने में स्वयं और अपने परिवार की भूख मिट सके और घर आया मेहमान (साधु) भी भूख से न लौट जाए l यहाँ हमें संतोष या संतुष्ट रहने की शिक्षा मिलती है l
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
कबीर को जब जीवन प्रदाता निर्गुण निराकार परब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है , तब कहते हैं - “ हम न मरै मरिहै संसारा, हम कौ मिला जिआवनहारा ”l उन्होंने अपने मन को परमात्मा में मिला दिया है l
कबीर की भाषा सधुक्कड़ी थी l उनकी वाणी ‘बीजक’ में सामाहित है l उनकी भाषा में खड़ी बोली, पंजाबी, ब्रज, अवधी आदि के शब्दों का सुन्दर एवं उपयुक्त प्रयोग मिलता है l इसे पूरबी हिंदी भी कहा जाता है l अपने विचारों के अनुरूप कबीर ने सरल और सठीक शब्दों के माध्यम से भाव व्यंजना की है l भाषा (भाखा) पर इनके अधिकार को देखते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कबीर को ‘भाषा का डिक्टेटर’ कहा है l अपने जीवन, विचार, समाज सुधार और आचरण के माध्यम से जिन मूल्यों की स्थापना कबीर ने की है, वे भारतीय साहित्य की अक्षय निधि है l उनसे समाज को सही दिशा मिलती रहेगी l इसमें कोई संदेह नहीं l कबीर की मृत्यु संवत 1575 में मगहर में हुई थी l
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