पुस्तक समीक्षा // "सुख राई-सा,दुःख के परबत"– अर्धशतक लगाते अद्भुत हाइकु


सुख राई-सा, दुःख के परबत ( हाइकु- संग्रह ) लेखिका :डॉ.सुधा गुप्ता                                                               मूल्य :380 /- ,पृष्ठ :45,संस्करण :2020 , प्रकाशक :पर्यावरण शोध एवं शिक्षा संस्थान,                                        मेरठ , उत्तर प्रदेश। 


समीक्षक : डॉ.पूर्वा शर्मा
अर्धशतक ! यह शब्द सुनकर ही मन प्रसन्न हो उठता है । किसी भी क्षेत्र में ‘अर्धशतक’ अथवा ‘गोल्डन जुबली’ शब्द का प्रयोग एक जादुई प्रभाव उत्पन्न करता है और जब बात पुस्तकों की हो तो साहित्य प्रेमियों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता । किसी भी साहित्यकार के लिए बहुत ही हर्ष की विषय है कि उनकी रचनाओं का काफ़िला अपनी अर्धशतक पूरी कर रहा है । सुप्रसिद्ध साहित्यकार/कवयित्री आदरणीया डॉ. सुधा गुप्ता ने अपने नये हाइकु संग्रह ‘सुख राई-सा, दुःख के परबत’ के द्वारा साहित्य जगत में अपने सृजन/प्रकाशन का पचासवाँ फूल अर्पित किया है ।


पचास पुस्तकों में जापानी विधाओं - हाइकु ताँका, चोका, सेदोका, हाइगा, हाइबन सहित यह संग्रह सुधा जी का इक्कीसवाँ संग्रह है, जो कि अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है । बारह- तरेह वर्ष की उम्र से ही कविता प्रेमी सुधा जी ने लेखनी संभाली एवं काव्य सृजन में जुटी रही; 1954 में आपका पहला संग्रह प्रकाशित हुआ था और हाल ही में 2020(अगस्त) में प्रकाशित इस संग्रह से कविता के प्रति इनका अनुराग स्पष्ट झलकता है । गत सत्तर वर्षों की काव्य साधना के पश्चात् कवयित्री आज भी कविता में भी रची बसी रहना चाहती है, समय के साथ-साथ उनका काव्य-प्रेम और प्रगाढ़ हो चला है । अपने इस पन्द्रहवें हाइकु संग्रह में उन्होंने ने स्वयं कहा है -


सब पा लिया / कविता से प्यार है / शेष क्या रहा ?(पृ. 19)
तुम ले जाना / कविता- अनुराग / अपने साथ ।(पृ. 22)
पैंतालिस पृष्ठीय इस नन्हे संग्रह में दो खण्डों में कुल 12 शीर्षकों को लेकर कुल 240 अद्भुत हाइकु संगृहीत है । इस लघुकाय संग्रह में संजोया हुआ प्रत्येक हाइकु अपनी एक कथा सुनाता है, इन हाइकु की व्याख्या एवं विश्लेषण पर एक पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है । खण्ड -1 के अंतर्गत भागवत रचना, वसन्त, ग्रीष्म, पावस, हेमन्त, सागर साँझ एवं खण्ड -2 में मार्ग श्रांत, तुम, विकास-आँधी, रंग : मेल-अनमेल, अकेला, गले झमेला शीर्षकों को लेकर हाइकु प्रस्तुत किए गए हैं । कविता से घनिष्ठ प्रेम करने वाली कवयित्री ने ‘तुम’ शीर्षक के अंतर्गत कुछ नेह भरे मनभावन हाइकु प्रस्तुत किए है । पूरे संग्रह में अनूठे शब्द चयन का सटीक प्रयोग देखा जा सकता है । प्रिय का स्पर्श जीवन देने वाला, मरने से बचाने वाला होता है इसके लिए ‘जिला देता’ एवं रोम-रोम में प्रेम की अनुभूति के लिए ‘बजी थी वाँशी-धुन’ जैसे शब्दों का प्रयोग बहुत ही सुंदर एवं सजीव बन पड़ा है ।


नेह से भीगे कुछ हाइकु देखिए -  
कण-कण में / बजी थी वाँशी-धुन / मन मगन ।(पृ. 16)
सौम्य स्पर्श था / तुम्हारी हथेली का / जो जिला देता ।(पृ. 16)
जीवन में सुख के क्षण अल्प एवं दुःख के अत्यधिक है, इस बात से सब भली-भाँति परिचित है । खण्ड- 2 में ‘मार्ग श्रांत’ के अंतर्गत ‘सुख राई-सा, दुःख के परबत’ शीर्षक को स्पष्ट करते हुए कुछ भावपूर्ण हाइकु इस प्रकार हैं -
सुख राई-सा / दुःख के पर्वत / ढोए जीवन ।(पृ. 14)
दुःख ने माँजा  / आँसू-जल ने धोया / उजला मन ।(पृ. 14)
उपर्युक्त हाइकु, संग्रह के शीर्षक की सार्थकता को बयाँ करते हैं । पुस्तक की भूमिका में स्वयं कवयित्री ने कहा है - “खुले मन से, पूरी ईमानदारी से स्वीकार करती हूँ कि यह संग्रह मेरी हार, पराजय, हताशा-निराशा, टूटे हुए मन का ‘कबूलनामा’ है – ‘दस्तावेज़’ है ......समय का लेखा-जोखा अटल है – एक ओर लगातार विजय और दूसरे किनारे एक हारा हुआ सैनिक, क्षत-विक्षत, व्रणों से बहता रक्त, कंठ में अटके प्राण जिसके सारे हथियार नष्ट हैं या छीन लिए गए हैं -  ऐसा हारा सैनिक, अंतिम पीड़ा से छटपटाता हुआ, शत्रु के समाने बिना शर्त समर्पण करके, श्वेत पताका हिलाता रहे, इसके अतिरक्त विकल्प ही क्या है ??? पिछले एक दशक से लगातार रोग-शोक, जीर्ण जर्जर देह की यातना, हर काम के लिए दूसरों की ‘पराश्रीतता’ आख़िर आत्म सम्मान को कोई कण तक कुचले ?


भविष्य की कोई आशा नहीं, कार्यक्षमता निरंतर समाप्त होते जाने की प्रक्रिया - अब मैंने सब शत्रुओं के सामने हाथ खड़े के दिए – एक पस्त कबूलनामा ...मेरी पराजय का दस्तावेज़ !!” संग्रह में कवयित्री की निराशा और टूटे हुए मन का ‘कबूलनामा’ प्रस्तुत करते कुछ अन्य हाइकु भी दिखाई दिए है । मन भले ही निराश हो लेकिन कवित्व कहाँ हार मानता है ? कवयित्री ने सीधे-सीधे बात न कहते हुए शब्द-शक्तियों, वक्रोक्ति, प्रतीकों अथवा संकेतों का सहारा लेकर बड़े ही काव्यात्मक ढंग से अपने विचार प्रस्तुत किए है -


दूब को छुए / एक युग बीता है / नंगे पैरों से । पृ. 13) नेह न मिला / धूल फाँकते रहा / सूखा है गला ।(पृ. 15)
मनुष्य प्रत्येक क्षण कुछ अलग अनुभव करता है । निराशा का स्वर हमेशा ही जीवन में बना नहीं रह सकता, निराशा की रात को आशा के किरणें दूर करती है और टूटे हुए मन को  समझाती है -बाती बना लो / कोरी धुनी रूई हूँ / दीप जला लो । (पृ. 18)
अनुभवी कवयित्री ने जीवन दर्शन के विविध पहलूओं का चित्रण बखूबी किया, उसके साथ ही अपने अनुभवी जीवन के निचोड़ को कुछ ज्ञान से पूर्ण उपदेशात्मक एवं नीतिवचन कथन के रूप में प्रस्तुत किया है -
पानी है ‘गुनी’ / मन की मैल धोता / आँसू बन के ।(पृ. 15)
अभी केवल / मरीं बाह्येन्द्रियाँ / मन को मार ।(पृ. 21)


कवयित्री ने अपने ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर उपर्युक्त कुछ उपदेशात्मक सूत्र तो दे दिए लेकिन उनके विवेकशील मस्तिष्क में उठ रहे कुछ प्रश्नों, शंकाओं को सुंदर काव्यात्मक रूप में पाठकों के सम्मुख रख दिया है -  
सपने छीने / वह तो सह लिया / क्यों छिनी दृष्टि ? (पृ. 14)
ब्रज को छोड़ / सखे! तुम जा बैठे / किस मथुरा ? (पृ. 16)


भारतीय लोक संस्कृति में परम्पराएँ, रीति-रिवाज, पूजा विधान, वेश भूषा आदि का अत्यधिक महत्त्व है । हमारी संस्कृति के अनेक महत्त्वपूर्ण तत्त्व जैसे - अरघ देना, विदाई में रोना, फुलकारी का काम और इस तरह के कई दस्तूरों का चित्रण इनके काव्य में दिखाई देता है । पर्वत से निकली नदियों को पर्वत की बेटियाँ कहना आदि इस तरह की अलंकारिक शैली एवं अद्भुत शब्द चयन जैसे - अर्घ्य चढ़ाते, बिलख, काढ़ती आदि काव्य को और अधिक आकर्षक बनाते हैं - 
बाल भास्कर / ज्योति-कलश लाते / अर्घ्य चढ़ाते । (पृ. 3)
सजल घन / दस्तूर हैं निभाते / पावस लाते ।(पृ. 7)
बिलख चली / पर्वतों की बेटियाँ / मायका छोड़ ।(पृ. 8)
सावनी सँझा / काढ़ती फुलकारी / उलझे धागे ।(पृ. 8)


आधुनिकीकरण एवं आज के चकाचौंध भरे माहौल में मनुष्य में प्रायः अकेलापन देखा गया है, लेकिन प्रकृति का अकेलापन किसी साधारण मनुष्य को नहीं दिखता । सुधा जी ने इस अकेलेपन को देखा, समझा और बड़ी गहनता के साथ अपने हाइकु में पिरोया है । आकाश, शाख, सीढियाँ, रात, सड़क यह सब अकेले हैं और मानव को यह दुनिया छोड़कर भी अकेले ही जाना है । प्रकृति के इस अकेलेपन को विभिन्न प्रतीकों/संकेतों के माध्यम से जीवन से जोड़कर देखने की गज़ब कला सुधा जी के हाइकु में है । मृत्यु जब वरण करती है तो मनुष्य को अकेले ही जाना पड़ता है, मृत्यु के पश्चात् वह कहाँ जाता है इस बात को कोई नहीं जानता, इस सन्दर्भ में कवयित्री ने पंछी को मनुष्य का प्रतीक माना है ।  परिवार में सभी के साथ रहते हुए भी अकेलपन महसूस करने को आकाश एवं तारों की संज्ञा, बच्चों (पंछी) के घर से चले जाने के बाद माँ-बाप का अकेला रहा जाने को शाख को संबोधित करता है । प्रतीक, सांकेतिकता, लक्षणा, व्यंजना आदि को इस नन्हे काव्य रूप में संजोए हुए, एक बढ़कर एक दोहरे एवं गहन अर्थ वाले कुछ उत्कृष्ट हाइकु देखिए -     
गहरा राज / आकाश अकेला है / तारों के साथ ।(पृ. 20)
जीवन बाँचे / सुख दुःख की पोथी / अंत अकेला ।(पृ. 20)
उड़ा अकेला / कहाँ पहुँचा पंछी / कोई जाने ना । (पृ. 20)


प्रकृति से अत्यधिक प्रेम करने वाली सुधा जी के पूर्व प्रकाशित हाइकु में बारहमासा एवं षड्ऋतु वर्णन मिलता है । इस संग्रह में भी कुछ बेहद सुन्दर प्रकृति के चित्र सुरक्षित है जो कि हृदय को स्पर्श करते हुए विभिन्न ऋतुओं का चित्रण करते नज़र आए । इनमें विभिन्न पुष्पों, पादपों, चिड़ियाँ आदि का वर्णन एवं चित्रण विशेष है । प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण करने वाली कवयित्री ने आलंबन, नाम परिगणनात्मक, रहस्यवादी एवं उपदेशात्मक आदि प्रकृति के रूप को अपने काव्य में चित्रित किया  है -
आलंबन रूप –
हवा के कानों / चैत फुसफुसाया / लो मैं आ गया ।(पृ. 4)
सागर- साँझ / लाल लहँगा घारे / लहरों झूमे ।(पृ. 12)
विधु ने छला / उछला तो सागर / स्पर्श न मिला ! (पृ. 12)
नाम परिगणनात्मक रूप  -
फूलों नहाया / सिर से पैर तक / अमलतास ।(पृ. 6)
कोहरे राजा / लाए काला कानून / मचा अन्धेर ! (पृ. 11)
रहस्यवादी रूप -
भूरे बादल ! / आषाढ़ अभी दूर / राह को भूले ? (पृ. 6)
भेद तो खोल / कोडे खा, पपीहा क्यों / मधु से बोल ।(पृ. 9)
पौष-पूर्णिमा : / बर्फ़ में नहा कर / चाँद क्यों पीला ? (पृ. 10)
उपदेशात्मक रूप -
दूर्वा झुकी थी / जाते ही तूफान के / लहरा हँसी! (पृ. 18)


प्रकृति के सौन्दर्य के मनमोहक चित्रण के साथ-साथ उसकी भीषणता एवं उसके रौद्र रूप जैसे - जेठ की तपती गर्मी, अतिवृष्टि से तबाही, माघ के प्रकोप से ठिठुरती प्रकृति आदि को चित्रांकित करते कुछ हाइकु देखिए -
बरसे कोड़े / जीव कराह उठे / जेठ न माने ।(पृ. 6)
क्रूर प्रकृति / आशियाने के निशां / मिटा के हँसी ! (पृ. 9)
प्रकृति प्रेमी मानव तो वसुधा को अपनी माँ मानता है । ज्ञान के भंडार हमारे वेदों की ऋचाओं में प्रकृति को माता तुल्य माना है । कुछ मन्त्रों में यह कमाना की गई है कि प्रकृति की प्रत्येक ऋतु मानव के लिए सुखद हो । इसके लिए आवश्यक है कि मानव प्रकृति का संतुलन बनाए रखे किन्तु उसने विकास के नाम पर प्रकृति का अन्धाधुन्ध दोहन किया है । इसके परिणामस्वरूप ओज़ोन परत में बढ़ता छेद, ग्लेशियर का पिघलना, जल प्रलय इत्यादि समस्याओं एवं अनेक प्रदूषणों से ग्रस्त पृथ्वी को देखकर


हाइकुकार की चिंता देखिए -    
विकास-आँधी / घायल है चाँदनी / रो रही सृष्टि ।(पृ. 17)
क्षुद्र मानव / अन्धाधुन्ध दोहन / रूठी प्रकृति ।(पृ. 17)
गोरी नदिया / मानव दुष्कर्म ने / कर दी काली ।(पृ. 17)
प्यारी धरा को घायल देखकर इस के संरक्षण हेतु कवयित्री ने बहुत सुंदर बात कही है -
तोड़ना नहीं / वहीं से स्वीकारेंगे / देवता ‘पूजा’।(पृ. 3)
हमारी पाँचों इन्द्रियों के अनुभव को मनोविज्ञान में बिम्बात्मक माना गया है । प्रस्तुत संग्रह में विभिन्न बिम्बों का समावेश दिखाई देता है । कुछ नये, अनोखे बिम्ब बहुत ही मनोहारी बन पड़े हैं । कुछ आकर्षक बिम्ब प्रस्तुत हैं  –
दृश्य बिम्ब -
भोर वासन्ती :/ अरुणिम साड़ी में / सुवर्ण बिन्दी ।(पृ. 5)
घूमें परियाँ / रिमझिम बुँदिया / हँसी-फुहार ।(पृ. 7)
मेघों के बीच / उजली बक-पाँत / लोप हो गई ।(पृ. 9)
अलंकृत दृश्य बिम्ब –
मुस्काती घाटी  / अनुराग में रँगी  / वधु-वेश में ।(पृ. 4)
घ्राण बिम्ब -
नींबू के झाड़ :/ अलमस्त ख़ुशबू / गमक रही ।(पृ. 4)


मानवीकरण एक सहज भाषा शैली है जिससे काव्य में प्रभाव एवं चमत्कार उत्पन्न होता है । वैसे भी  प्रकृति वर्णन में सुधा जी की शैली चित्रात्मक रही है । कुछ हाइकु में सुंदर बिम्बों के साथ प्रकृति के मानवीकरण को बड़ी कुशलता से एकाकार किया है । प्रकृति के सुन्दर मानवीकरण के अनेक उदाहरण संग्रह में देखे जा सकते हैं, यथा -
उषा सजी है / मेघों वाली साड़ी में / झलकी बिन्दी ।(पृ. 9)
खुले बिखरे / कादम्बिनी के केश / नर्म अँधेरा ।(पृ. 9)
उतावली थी / चली आई चाँदनी / भीगी साड़ी में ।(पृ. 10)
सुन्न हाथों से / धोती घरा के वस्त्र / भोर बेचारी ।(पृ. 10)
भीगी पड़ी थी / सूरज ने सुखाई / हरी चुनरी ।(पृ. 10)


मानवीकरण के अलावा और भी कई अलंकारों के प्रयोग से हाइकु के सौन्दर्य वृद्धि हुई है । संग्रह के शीर्षक वाला हाइकु -  सुख राई-सा... में उपमा अलंकार की छटा व्याप्त है ही, इसके अलावा एक अन्य हाइकु में घटा को सीधे-सीधे श्याम या काला न कहकर कान्हा-रंग डूबी कहकर हाइकु में चार चाँद लगा दिए है । उपमा से सुसज्जित कुछ अन्य हाइकु भी देखिए -
घटा साँवरी / कान्हा-रंग डूबी है / प्रेम बावरी ।(पृ. 8)
पौष को धूप / नरम रजाई-सी / लिपट जाती ।(पृ. 11)


फूलों को बच्चा, धूप को चाय और दिन को चरवाहा कहना – भावों एवं कल्पना का सुंदर चित्रण, एक से बढ़कर एक विभिन्न अलंकारों में संजोया है जिससे हाइकु के सौन्दर्य में निखार आया है । साँझ पर राधिका का रूप आरोपित करना, उसका संकेत-स्थल पर प्रतीक्षा करना एवं कान्हा का न आना .... उफ़्फ़ ....इतना मोहक चित्रण प्रस्तुत किया है कि पाठक उसमें गोते लगता रहे - 
रूपक –
साँझ-राधिका / संकेत-स्थल बैठी / आए न कान्हा ।(पृ. 8)
धुले मुखड़े / धूप-चाय माँगते  / ये फूल-बच्चे ।(पृ. 10)
उत्प्रेक्षा –
वाँशी बजाता / दिन का चरवाहा / गुज़र गया ।(पृ. 18)
विरोधाभास -
पौष की साँझ / कोहरे की रजाई / दुबका गाँव ।(पृ. 11)
तुम जो मिले / गूँगी व्यथा क्या बोले / मौनाश्रु झरे ।(पृ. 18)


पूरे संग्रह में कवयित्री के अनूठे शब्द चयन पाठक को आकर्षित करते हैं । सांकेतिकता, वक्रोक्ति, लक्षणा, व्यंजना तो बहुत से स्थानों पर दिखाई दी है, उसी के साथ कुछ शब्दों ने ऐसा जादू बिखेरा है कि पाठक वाह ! किए बिना नहीं रह पाता । शब्दों के साथ उनके अर्थ की गहनता काव्य में चमत्कार उत्पन्न करती है । उषा की सुनहरी किरणों को रचती अनुष्टुप कहना, यह देखा गया है कि अधिकांश लोग मंदिर में पीपल पर चुन्नी बाँधकर चले जाते हैं, यहाँ पर ‘भक्त तो गए’ कहकर कवयित्री ने एक प्रश्न खड़ाकर सोचने पर मजबूर दिया है । बारिश में धरा से उठने वाली सौंधी महक को सुगंध-यात्रा, वसंत को पाहुन, पावस में हरी धरा को धानी चीनांशुक, अपने प्रिय को शाद्वल-द्वीप, माघ में ओस की बूँदों को लौटती पुरखिन, झारती बुँदे कहना आदि इस तरह के सुंदर शब्दों का चयन एवं उसके उचित प्रयोग का समन्वय काव्य के सौन्दर्य के साथ उसके अर्थ में वृद्धि करता है ।


सुगंध-यात्रा / धान- खेतों से उठी / वंशिका-धुन ।(पृ. 8)
मरुस्थल में / शाद्वल-द्वीप तू / बचाए प्राण ! (पृ. 13)
माघ स्नान से / लौटती पुरखिन / झारती बुँदे । (पृ. 10)
मंदिर द्वारे / पीपल चुन्नी बाँध / भक्त तो गए ।(पृ. 19)
सुधा जी के हाइकु में विभिन्न अलंकारों, मिथक, प्रतीक, अनूठे शब्द चयन आदि के साथ कुछ विशेषणों का भी सुंदर प्रयोग हुआ है । विशेषण का सही चयन एवं सटीक प्रयोग काव्य में चमत्कारिक प्रभाव को उत्पन्न करता है और यह पाठक के हृदय को स्पर्श करते हैं । विशेषण के कुछ सुंदर, अनोखे प्रयोग से बिम्ब और भी आकर्षक बन पड़े हैं - पत्तों को शैतान कहना, उनके बार-बार हिलने को मुड़-मुड़ भागते कहना और उसके कारण हवा का थक हार जाना को हल्कान हवा कहना ; ऐसे बहुत ही सुन्दर विशेषण प्रयोग कर अद्भुत बिम्ब सृजन किया है । काव्य में प्रयुक्त कुछ हाइकु में कुछ अनोखे शब्दों ने मन मोह लिया, कुछ बेजोड़ हाइकु देखिए -
शैतान पत्ते / मुड़-मुड़ भागते / हल्कान हवा ।(पृ. 5)
घोला गुलाल / शरारती शाम ने / सागर लाल ।(पृ. 12)
‘नज़र’ लगी / लाल से काली हुई / बेचारी साँझ ।(पृ. 12)
जादुई हँसी / किसे रिझाने चला / बॉटल-ब्रश ? (पृ. 4)


कवयित्री ने इस संग्रह को अपनी पराजय का दस्तावेज़ अवश्य कहा है लेकिन यह संग्रह उनकी विजय का प्रतीक है । मुझे नहीं लगता कि सृजन के सत्तर वर्ष एवं पचास पुस्तकें, किसी भी हार का कबूलनामा या दस्तावेज़ हो सकती है । संग्रह को देखकर बिलकुल नहीं कह सकते कि कोई सैनिक अपनी पराजय स्वीकार कर श्वेत पताका लहरा रहा हो, इसे देखकर लगता है कि इतनी पीड़ा के बावजूद भी उसके आत्मबल ने पराजय स्वीकार नहीं की है, वह तो युद्ध के अंत तक अकेला लड़ता रहा है और लड़ता रहेगा । एक वीर सैनिक का अनुभव एवं विवेक उसकी युद्ध कला में स्पष्ट परिलक्षित होता है । यही बात इस संग्रह में भी दिखाई देती है । यह संग्रह कला पक्ष एवं भाव पक्ष का अद्भुत समन्वय है । जापानी विधाओं पर केन्द्रित सुधा जी के इतने सारे संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, लेकिन सब एक दूजे से नितांत भिन्न नज़र आते हैं । यकीन मानिए यह संग्रह मात्र देखने में ही नन्हा प्रतीत हो रहा, जैसा कि आरंभ में कहा जा चुका है कि इसके एक से बढ़कर एक बेजोड़ हाइकु की व्याख्या के लिए तो कई पृष्ठ भरे जा सकते हैं । यहाँ पर कुछ हाइकु को प्रस्तुत किया है, लेकिन शेष हाइकु का रसास्वादन करने के लिए पाठकों एवं हाइकु रसिकों को पूरा संग्रह पढ़ना होगा । आदरणीया सुधा जी को नमन एवं इस अद्भुत संग्रह के लिए हृदयतल से अनेकों बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ । भविष्य में भी उनके संग्रह पढ़ने का अवसर प्राप्त हो ऐसी आशा करते हैं ।  


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