भैलो रे भैलो खेलना गांवों में अधिक आनंदकर होता है,
० डॉ.वीरेंद्रसिंह बर्त्वाल ०
शहरों में पहाड़ की दीपावली (इगास) मनाने की पहल होना परंपराओं को पुनजीर्वित करने की दिशा में अच्छा प्रयास है, परन्तु अच्छा होता कि यह आयोजन उसी स्वरूप में होता, जो आज से लगभग 35-40 साल पहले था। शहरों में तो उस स्वरूप की आस नहीं कर सकते हैं, लेकिन पलायन के कारण निर्जन हुए गांवों में तो उस स्वरूप की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शहरों में मनाए जाने वाली एकादशी का वही स्वरूप है, जो दीपावली का है। यहां दीपावली जैसा ही धूम-धड़ाका हो रहा है, पटाखे फूट रहे हैं, हां,मिठाई थोड़ी कम बंट रही है। कुछ संस्थाओं की पहल पर भैलो खेलने का आयोजन हुआ है, जो विशुद्ध रूप से पहाड़ों में ही होता था। भैलो केवल एकादशी पर ही नहीं, छोटी और बड़ी दोनों दीपावलियों पर भी खेला जाता था, लेकिन अधिकांश लोगों ने इसे केवल एकादशी से ही जोड़ लिया।
भैलो का आशय और उद्देश्य अनिष्टकारिणी शक्तियों और व्यक्ति को बुरे प्रभावों से मुक्त कराना रहा है। इसके साथ मनोरंजन और मनोविनोद के भी झीने से तंतु जुड़ चुके हैं, इसलिए यह लोकप्रिय बन गया। यद्यपि भैलो खेलना गांवों में अधिक आनंदकर होता है, लेकिन जब शहरों ने पहाड़ के वाद्य यंत्र ढोल-दमाऊं को भी गोद ले लिया तो भैलो को क्यों छोड़ते! भैलो दरअसल, चीड़ की विशेष ज्वलनशील पतली लकड़ियों के जलते गट्ठर को कहते हैं, जो किसी बेल अथवा सांकल पर बंधा होता है। इस अग्नि को लोग अपने चारों ओर 360 डिग्री पर घुमाते हैं और मनोरंजनात्मक अंदाज में किसी नजदीकी व्यक्ति पर तंज कसते हैं-भैलो रे भैलो, फलाणा दादा क्या ह्वेलो।
टिहरी गढ़वाल की नैलचामी पट्टी के कुछ गांवों में दीपावलियों का यह आयोजन गांव में पंचायती स्तर पर सार्वजनिक स्थान पर होता है। वहां पर गांव का एक सबसे बड़े आकार का भारी भैलो होता है, जिसे पंचायती भैलो कहते हैं। इसे अंध्या भी कहा जाता है। इस पर आग लगाकर लगभग सभी व्यक्ति अपने चारों ओर घुमाते हैं। ऐसा करना शुभ माना जाता है।
शहरों में पहाड़ की दीपावली (इगास) मनाने की पहल होना परंपराओं को पुनजीर्वित करने की दिशा में अच्छा प्रयास है, परन्तु अच्छा होता कि यह आयोजन उसी स्वरूप में होता, जो आज से लगभग 35-40 साल पहले था। शहरों में तो उस स्वरूप की आस नहीं कर सकते हैं, लेकिन पलायन के कारण निर्जन हुए गांवों में तो उस स्वरूप की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शहरों में मनाए जाने वाली एकादशी का वही स्वरूप है, जो दीपावली का है। यहां दीपावली जैसा ही धूम-धड़ाका हो रहा है, पटाखे फूट रहे हैं, हां,मिठाई थोड़ी कम बंट रही है। कुछ संस्थाओं की पहल पर भैलो खेलने का आयोजन हुआ है, जो विशुद्ध रूप से पहाड़ों में ही होता था। भैलो केवल एकादशी पर ही नहीं, छोटी और बड़ी दोनों दीपावलियों पर भी खेला जाता था, लेकिन अधिकांश लोगों ने इसे केवल एकादशी से ही जोड़ लिया।
भैलो का आशय और उद्देश्य अनिष्टकारिणी शक्तियों और व्यक्ति को बुरे प्रभावों से मुक्त कराना रहा है। इसके साथ मनोरंजन और मनोविनोद के भी झीने से तंतु जुड़ चुके हैं, इसलिए यह लोकप्रिय बन गया। यद्यपि भैलो खेलना गांवों में अधिक आनंदकर होता है, लेकिन जब शहरों ने पहाड़ के वाद्य यंत्र ढोल-दमाऊं को भी गोद ले लिया तो भैलो को क्यों छोड़ते! भैलो दरअसल, चीड़ की विशेष ज्वलनशील पतली लकड़ियों के जलते गट्ठर को कहते हैं, जो किसी बेल अथवा सांकल पर बंधा होता है। इस अग्नि को लोग अपने चारों ओर 360 डिग्री पर घुमाते हैं और मनोरंजनात्मक अंदाज में किसी नजदीकी व्यक्ति पर तंज कसते हैं-भैलो रे भैलो, फलाणा दादा क्या ह्वेलो।
टिहरी गढ़वाल की नैलचामी पट्टी के कुछ गांवों में दीपावलियों का यह आयोजन गांव में पंचायती स्तर पर सार्वजनिक स्थान पर होता है। वहां पर गांव का एक सबसे बड़े आकार का भारी भैलो होता है, जिसे पंचायती भैलो कहते हैं। इसे अंध्या भी कहा जाता है। इस पर आग लगाकर लगभग सभी व्यक्ति अपने चारों ओर घुमाते हैं। ऐसा करना शुभ माना जाता है।
भैलो अधिक संख्या में खेले जाएं तो चीड़ की लकड़ियों का दोहन हो जाएगा। और यह होना भी चाहिए, क्योंकि चीड़ पहाड़ के पर्यावरण के लिए सबसे अधिक नुकसानदायक है। यह किसी ईर्ष्यालु आदमी की तरह होता है,जो सब कुछ फ्री में हजम करना चाहता है,अन्य का भला होना नहीं देखना चाहता। चीड़ भी अपने आसपास अन्य वनस्पतियों को पनपने नहीं देता है और न ही चीड़ के जंगल में अच्छी घास उगती है। यह जमीन से अधिक पानी सोखता है और इसके जंगल में वनाग्नि की घटनाएं अधिक होती हैं। पहाड़ के लिए चौड़ी पत्ती वाले वृक्ष ही लाभदायक हैं। यद्यपि चीड़ की लकड़ी का विकल्प भीमल की छाल निकली शाखाएं होती हैं।
ब हर हाल, कुछ लोग केवल इगास की छुट्टी को लेकर बहुत खुश हैं, लेकिन केवल छुट्टी ही नहीं, त्योहार को मनाने के लिए वही भावना और श्रद्धा भी होना आवश्यक है। जितने लोग शहरों मंे इगास के नाम धूम-धड़ाका कर रहे हैं, उतने ही गांवों में जाकर करते तो शायद कुछ दिन के लिए सूअर, बंदर, गोणी,गुरो, बाघ,रिक और सौले से छुटकारा मिल जाता। मैक्स-सूमो वालों की भी कुछ कमाई हो जाती और ऊंघते-ऊबते घरों के मकड़जाते भी साफ हो जाते। अब यह मत मांग कर लेना कि इसके लिए तीन दिन कि छुट्टी होनी चाहिए।
ब हर हाल, कुछ लोग केवल इगास की छुट्टी को लेकर बहुत खुश हैं, लेकिन केवल छुट्टी ही नहीं, त्योहार को मनाने के लिए वही भावना और श्रद्धा भी होना आवश्यक है। जितने लोग शहरों मंे इगास के नाम धूम-धड़ाका कर रहे हैं, उतने ही गांवों में जाकर करते तो शायद कुछ दिन के लिए सूअर, बंदर, गोणी,गुरो, बाघ,रिक और सौले से छुटकारा मिल जाता। मैक्स-सूमो वालों की भी कुछ कमाई हो जाती और ऊंघते-ऊबते घरों के मकड़जाते भी साफ हो जाते। अब यह मत मांग कर लेना कि इसके लिए तीन दिन कि छुट्टी होनी चाहिए।
टिप्पणियाँ