ग़ज़ल, ख़्यालात और अभिनय के रूप में जीवंत हुए ग़ालिब
जयपुर -मशहूर शायर मिर्जा असदउल्ला खां ग़ालिब की 225वीं जयंती पर ग़ालिब की शायरी कभी ग़ज़ल गायिकी के रूप में परवान चढ़ी तो कभी उर्दू ड्रामे में कलाकारों के अभिनय के रूप में जाहिर हुई। राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर की ओर से जवाहर कला केंद्र और स्वागत जयपुर फाउंडेशन के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित 'ग़ालिब का ख़्याल आया' कार्यक्रम का। जवाहर कला केंद्र के रंगायन सभागार में यह कार्यक्रम तीन चरणों में आयोजित हुआ। कार्यक्रम की शुरुआत में गायिका रोली अग्रवाल ने 'नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने...,' ग़ज़ल को पेशकर माहौल को खूबसूरत बनाया। इस मौके पर उस्ताद नाज़िम हुसैन और उनके हमनवाओं ने मिर्जा ग़ालिब की एक से बढ़कर एक ग़ज़लों का गुलदस्ता सजाया। उस्ताद नाजिम हुसैन ने 'इश्क़ मुझको नहीं वहशत ही सही...','इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई, मेरे दुख की दवा करे कोई...,' 'हरेक बात पे कहते हो तुम के तू क्या है... सहित कई ग़ज़लों से ग़ालिब की याद को ताजा किया। उनके साथ प्रिया सैनी और खादिम हुसैन ने भी ग़ज़लों की प्रस्तुतियां दीं। कार्यक्रम में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर सिराज अजमली और टोंक के गर्वमेंट गर्ल्स कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ.एजाज अब्बास हैदरी ने गालिब के व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा की। राजस्थान उर्दू अकादमी के अध्यक्ष डॉ. रजा हुसैन ने बताया कि समारोह की अध्यक्षता पूर्व आईएएस व शायर जगरूप सिंह यादव ने की। वहीं विशिष्ट अतिथि के तौर पर प्रसिद्ध लेखक, आलोचक समीक्षक एवं रंगकर्मी विनोद भारद्वाज उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन डॉ. सालेहा गाजी ने किया। स्वागत जयपुर फाउंडेशन के चेयरमैन इक़बाल ख़ां नियाज़ी ने सभी का आभार व्यक्त किया।
कार्यक्रम में डॉ. सईद आलम और पैरोज ग्रुप की ओर से नाटक 'गालिब का कलकत्ता मुशायरा' मंचित हुआ। इसमें कलाकारों ने तत्कालीन शायरों के पहनावे में मुशायरे को मंच पर साकार किया। नाटक में बताया गया कि 1828 में गालिब के कलकत्ता प्रवास के दौरान उन्होंने तीन मुशायरों में शिरकत की थी, जहां उनकी अन्य शायरों के साथ फारसी की जानकारी पर बहस हुई थी। गालिब का मानना था कि उस समय भारत में फारसी का कोई स्कॉलर नहीं था जबकि अन्य शायर जो तत्कालीन जाने माने शायर कतिल के शागिर्द थे, वे गालिब से ज्यादा अच्छी फारसी कतील की समझते थे। उस समय के बड़े शायर नवाब सिराजुद्दीन और अकबर अली खां ने तीन मुशायरों में गालिब की बेइज्जती करने का प्रयास किया।
कार्यक्रम में डॉ. सईद आलम और पैरोज ग्रुप की ओर से नाटक 'गालिब का कलकत्ता मुशायरा' मंचित हुआ। इसमें कलाकारों ने तत्कालीन शायरों के पहनावे में मुशायरे को मंच पर साकार किया। नाटक में बताया गया कि 1828 में गालिब के कलकत्ता प्रवास के दौरान उन्होंने तीन मुशायरों में शिरकत की थी, जहां उनकी अन्य शायरों के साथ फारसी की जानकारी पर बहस हुई थी। गालिब का मानना था कि उस समय भारत में फारसी का कोई स्कॉलर नहीं था जबकि अन्य शायर जो तत्कालीन जाने माने शायर कतिल के शागिर्द थे, वे गालिब से ज्यादा अच्छी फारसी कतील की समझते थे। उस समय के बड़े शायर नवाब सिराजुद्दीन और अकबर अली खां ने तीन मुशायरों में गालिब की बेइज्जती करने का प्रयास किया।
हालांकि मुशायरे में उनके सभी सवालों का ग़ालिब ने बखूबी जवाब दिया मगर इस मुशायरे के बाद ग़ालिब ने कतिल के खिलाफ काफी लिखा। नाटक के निर्देशक, लेखक और गालिब की भूमिका निभाने वाले डॉ. सईद आलम ने बताया कि इसमें यश मल्होत्रा, जुल्फिकार, शारिक, संदीप पहवा और सत्यम झा ने अभिनय किया।
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