दुनिया की 50 फीसदी से ज्यादा नदियों के बहाव में कमी आयेगी
० ज्ञानेन्द्र रावत ०
जलवायु परिवर्तन वर्तमान में वैश्विक स्तर पर ऐसी समस्या बन गयी है जिससे निपटने को दुनिया के देश अपने स्तर से काम कर रहे हैं लेकिन समाधान मिलता नजर नहीं आ रहा है। इसमें भी सबसे चिंतनीय स्थिति यह है कि आज धरती तप रही है। उसमें सबसे बडी़ चिंता की बात यह है कि इसमें दिनोंदिन तेजी से बढो़तरी हो रही है। यह थमने का नाम नहीं ले रही है। वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के उद्देश्य से 2015 में 196 देशों ने पेरिस अंतरराष्ट्रीय जलवायु समझौते के तहत तय किया था। इस दिशा में अभी तक कितनी कामयाबी मिली है यह परखने का समय है।
हकीकत यह है कि अभी भी दुनिया पेरिस समझौते के लक्ष्य से बहुत दूर है और हाल फिलहाल उस लक्ष्य को पाने की उम्मीद भी कम है। मौजूदा हालात इसकी गवाही देते हैं। हकीकत यह भी है कि लोग अभी भी जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। सबसे खतरनाक स्थिति यह है कि दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ने की रफ्तार थमने का नाम नहीं ले रही है जो शिखर पर पहुंचने के कगार पर है। हम दावे कुछ भी करें हकीकत यह है कि दुनिया में सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाले देशों में भारत का नम्बर तीसरा है। हमसे ऊपर अमेरिका और शीर्ष पर चीन है।
हमारे बाद रूस, जापान, ईरान और जर्मनी का नम्बर आता है।यह स्थिति इस बात का संकेत है कि दुनिया में आने वाला समय इंसान के लिए कितना मुश्किल होगा। ऐसी स्थिति में जलवायु प्रभावों से बचने के लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। हकीकत यह है कि धरती को सुरक्षित रखने के आठ में से सात उपाय विफल हो चुके हैं। इन उपायों में धरती का तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़नेसे रोकना, कार्यात्मक अखंडता, सतह के जलस्तर का उपयोग, भूजल स्तर घटने से रोकना, नाइट्रोजन और फास्फोरस का सीमित उपयोग और ऐयरोसोल का कम उत्सर्जन शामिल है। इसके परिणामस्वरूप पूरी दुनिया के लोगों की सेहत और 20 लाख प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।
इनमें 24 फीसदी जीव, 27 फीसदी पौधे और 18 फीसदी कशेरुकी प्रजाति शामिल हैं। हालत यह है कि पौधों और प्रजातियों के गायब होने की दर दोगुणी से भी ज्यादा हो गयी है। इसके लिए प्रमुख रूप से मानवीय गतिविधियों के चलते बढ़ता तापमान और प्रदूषण जिम्मेवार है। इसका मुख्य कारण इंसानों द्वारा प्रकृति के क्षेत्र में योगदान न देना है। हकीकत यह है कि दुनिया की लगभग 52 फीसदी भूमि पर अतिक्रमण करके दो या उससे अधिक उपायों का उल्लंघन किया जा रहा है।
इससे दुनिया की कुल आबादी का 86 फीसदी हिस्सा प्रभावित हुआ है। भारत में कहीं सूखे की स्थिति है तो कहीं जरूरत से ज्यादा बारिश का मंजर है। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के प्रभाव से भारत भी अछूता नहीं है। वैश्विक तापमान में वृद्धि के प्रभाव में भारत में भी औसत तापमान में वृद्धि हुई है। हिंद महासागर के स्तर में भी वृद्धि हुई है जो भारतीय भूभाग को हर साल 3.3 मिलीमीटर की मात्रा में निगल रहा है। देश की संसद में पेश आंकडो़ं के मुताबिक 1993 और 2017 के बीच भारत के आसपास समुद्र के स्तर में कुल मिलाकर 7.92 सेंटीमीटर की बढो़तरी हो चुकी है। जहां तक कार्बन डाई आक्साइड का सवाल है,
कार्बन डाई आक्साइड का औसत वार्षिक स्तर 2022 में रिकार्ड 417.9 पी पी एम पर पहुंच गया है जो औद्योगिक काल से पहले की तुलना में 50 फीसदी ज्यादा है। जलवायु परिवर्तन में इसका सबसे ज्यादा योगदान है। साथ ही मीथेन जो दशकों तक वातावरण में बनी रहती है और नाइट्रस आक्साइड के स्तर में भी रिकार्ड बढो़तरी खतरनाक संकेत है। इस सबके लिए किसी और को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि इसका सबसे बडा़ दोषी इंसान ही है जिसकी वजह से ही 1.32 डिग्री धरती गर्म हुई है। जैसे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन,
वनों का विनाश जिसकी वजह से कार्बन सोखने की पर्याप्त क्षमता की कमी आदि। इसमें जीवाश्म ईंधन की सबसे बडी़ भूमिका है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन की हालिया रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है।
यहां इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि कार्बन डाई आक्साइड का वातावरण में जीवन काफी लम्बा होता है। इसका उत्सर्जन यदि शून्य भी हो जाये तो भी तापमान में इसका प्रभाव दशकों तक बना रहता है। यह भी कि जलवायु पर बढ़ते तापमान में ग्रीन हाउस गैसों में कार्बन डाई आक्साइड की हिस्सेदारी 78 फीसदी है जो सबसे बडा़ कारक है।
यहां इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि कार्बन डाई आक्साइड का वातावरण में जीवन काफी लम्बा होता है। इसका उत्सर्जन यदि शून्य भी हो जाये तो भी तापमान में इसका प्रभाव दशकों तक बना रहता है। यह भी कि जलवायु पर बढ़ते तापमान में ग्रीन हाउस गैसों में कार्बन डाई आक्साइड की हिस्सेदारी 78 फीसदी है जो सबसे बडा़ कारक है।
यूरोपीय संघ के कापरनिकस जलवायु पैनल की उप प्रमुख सामंथा बर्गेस का इस बारे में एकमुश्त राय है कि दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन तत्काल बंद किया जाये। बीते महीने दुनिया के अनेक इलाके बाढ़ और आग की स्थिति से जूझने को मजबूर हुए। अगस्त में मध्य योरोप और स्कैंडेनेविया के बडे़ हिस्से में बाढ़ जबकि फ्रांस ,ग्रीस,इटली और पुर्तगाल में ऐसा सूखा पडा़ कि वहां भीषण आग लग गयी। दक्षिणी अमेरिका, अंटार्कटिका के आसपास और आस्ट्रेलिया में भी औसत से काफी ऊपर तापमान दर्ज किया गया। हालात पर नजर डालें तो साल 2023 तापमान बढो़तरी के मामले में शीर्ष पर रहा है।
बीते महीनों की गर्मी ने तो अभी तक के सारे रिकार्ड तोड़ दिये हैं। सितम्बर में दक्षिणी अमेरिका में रिकार्ड तोड़ गर्मी पडी़। न्यूयार्क में रिकार्ड बारिश हुई। महासागरों का तापमान बढा़। अत्याधिक तापमान के कारण दुनिया में हीटवेव और जंगल की आग की घटनाओं में बेतहाशा बढो़तरी हुई। वैज्ञानिकों ने 2023 रिकार्ड गर्म साल होने की आशंका जतायी थी । यह भी कि इस साल कार्बन प्रदूषण उच्चतम स्तर पर पहुंच जायेगा। हालात ने यह साबित भी किया है और 2024 उससे भी अधिक गर्म होगा। इसमें कोयले से कार्बन उत्सर्जन का अहम योगदान है।
2022 में अकेले कोयले से कार्बन उत्सर्जन 15.5 बिलियन टन के करीब था जो तेल और प्राकृतिक गैस सहित किसी भी अन्य जीवाश्म ईंधन से अधिक था। 2023 में उसमें और इजाफा हुआ है। सिसरो के निदेशक ग्लेन पीटर्स की मानें तो अब कार्बन उत्सर्जन में पहले के मुकाबले बढो़तरी जारी है। यदि वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री की सीमा पार कर गया तो बाढ़, सूखा, तूफान, भीषण बारिश, भीषण गर्मी और भयंकर लू जैसी घटनाओं में बढो़तरी होगी, पानी की कमी के चलते पैदावार में गिरावट होगी, दुनिया में भूखे लोगों की तादाद में इजाफा होगा,
ग्लेशियरों के पिघलने की दर में और तेजी आयेगी जिसे रोकना मुश्किल हो जायेगा। उस स्थिति में जबकि दुनिया के 48 देश भोजन की कमी का भीषण सामना कर रहे हैं। बीते साल संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में कहा गया था कि वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की कोशिश सफल होती नजर नहीं आ रही। मौजूदा लागू नीतियों के आधार पर दुनिया के औसत तापमान में 2.8 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि की संभावना है। यह निर्धारित लक्ष्य से दोगुणा है।
उस स्थिति में जबकि अगले साल अमेरिकी मौसम एजेंसी नेशनल ओशनिक एण्ड एटमोस्फिरियरिक एडमिन्ट्रिरेशन ने सुपर अल नीनो की भविष्यवाणी की है। हाल ही में जारी क्लाइमेट सेंट्रल की रिपोर्ट के अनुसार अगला साल 2024 और भी ज्यादा गर्म होगा। उस दशा में समुद्र की सतह का तापमान औसत से कम से कम 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म होगा। 30 फीसदी से अधिक संभावना है कि तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ जायेगा। नतीजतन चरम मौसमी आपदाओं यथा बाढ़, सूखा और तूफान में बढो़तरी को नकारा नहीं जा सकता।
खाद्य संकट से उबरने में जल की कमी सबसे बडी़ बाधा बनेगी। जल विज्ञान चक्र के प्रभावित होने से तिब्बती पठार, हिमालय और दूसरी पर्वत श्रृंखलाओं सहित लगभग दो अरब लोग पानी के संकट का सामना करेंगे। तेजी से ग्लेशियर पिघलने से ग्लेशियर झीलें बढे़ंगीं जिनपर अधिक दबाव की स्थिति में प्रलयंकारी बाढ़ के प्रकोप को झुठलाया नहीं जा सकता। दुनिया की 50 फीसदी से ज्यादा नदियों के बहाव में कमी आयेगी। दुनिया के कई इलाकों में मिट्टी सोखने की क्षमता कम हो सकती है। क्योंकि मिट्टी और हवा का तापमान अलग- अलग होने से हवा की अपेक्षा जलवायु परिवर्तन का मिट्टी की तीव्रता और आवृत्ति पर कहीं अधिक प्रभाव पड़ता है
जिससे हवा की तुलना में मिट्टी में अत्याधिक गर्मी तेजी से विकसित होती है। गरमाती धरती से तूफान दिन-ब-दिन और घातक हो जायेंगे, मानसून की अनिश्चितता से घिरे 27 देशों में सामान्य मौसम का पैटर्न बिगड़ जायेगा, कुछ क्षेत्रों में भारी वर्षा तो कुछ में सूखा पडे़गा। समुद्र के बढ़ते तापमान और लम्बी चलने वाली समुद्री लू के कारण तटीय राज्यों में मानसून के पहले या बाद में अत्याधिक बारिश की घटनाएं तेजी से बढे़ंगीं। ये घटनाएं गंभीर रूप अख्तियार करेंगी जिनका पता लगाना टेडी़ खीर होगा।
वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की दिशा में जीवाश्म ईंधन की खपत को कम करना समय की सबसे बडी़ जरूरत है। चिंता इस बात की है कि यदि जलवायु खतरों से निपटने के प्रयास इसी ढर्रे पर जारी रहे तो साल 2024 आपदाओं का साल होगा और सदी के अंत तक तापमान में बढो़तरी तीन डिग्री तक पहुंच जायेगी। इससे समूची दुनिया को जलवायु आपात काल का सामना करना पड़ सकता है। इस सबके लिए पेरिस समझौते के क्रियान्वयन में विकसित देशों खासकर अमेरिका की हीला-हवाली पूरी तरह जिम्मेवार है।
आशा की जाती है कि आगामी माह में दुबई में होने वाली जलवायु वार्ता से पर्यावरण के मोर्चे पर काफी उम्मीदें हैं। देखना यह है कि पर्यावरण की रक्षा के लिए दुनिया के देश कितनी गंभीरता दिखाते हैं। यह भी कि इस वार्ता मेंँ उत्सर्जन में कमी लाने व जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने पर कहां तक एकराय होते हैं।
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