सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बोर्ड में कर्मकार व अधिकारी निदेशकों के पदों की रिक्तियां भरें

० आशा पटेल ० 
जयपुर। बैंकिंग उद्योग के बदलते परिदृश्य में, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बोर्डों में कर्मकार और अधिकारी निदेशक का प्रतिनिधित्व केवल एक कानूनी आवश्यकता नहीं है बल्कि संतुलित बैंक प्रशासन और समावेशी निर्णय लेने के लिए एक महत्वपूर्ण तत्व है। वर्तमान सरकार व बैंक प्रशासन द्वारा इन पदों को भरने में मनमानी की जा रही है, जिससे कर्मचारियों के हितों का उच्चतम स्तर पर प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा है। यह स्थिति न केवल कर्मचारियों के अधिकारों की निगरानी के लिए जरूरी है, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए भी जरूरी है ताकि बैंक आम जनता के व्यापक हित में कार्य करें।
ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स एसोसिएशन की राजस्थान राज्य इकाई के अध्यक्ष लोकेश मिश्रा ने बताया कि हमने मांग की है कि नई एनडीए सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में कर्मकार और अधिकारी निदेशकों की नियुक्तियों को तत्काल बहाल करे। 2014 से मोदी सरकार शासन के दौरान कानूनी बाध्यता के बावजूद इन नियुक्तियों को रोक दिया गया था। यह भी बताया गया है कि प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गई फाइलें आवश्यक स्वीकृतियों के बिना रोक दी गईं और आगे नहीं बढ़ीं।

उन्होनें इस सम्बन्ध में क़ानूनी प्रावधानों और प्रतिनिधित्व का महत्व बताते हुए कहा है कि 1970 और 1980 के बैंकिंग कंपनियां (अधिग्रहण और हस्तांतरण) अधिनियम जो राष्ट्रीयकृत बैंकों को नियंत्रित करते हैं, निदेशक मंडल में कर्मकार और अधिकारी प्रतिनिधियों की नियुक्ति का आदेश देते हैं। विशेष रूप से, अधिनियम की धारा 9(3)(एफ) और 9(3)(जी) इन नियुक्तियों को सुनिश्चित करती हैं ताकि बैंकों के निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में कर्मचारियों की चिंताओं और कल्याण का पर्याप्त रूप से ध्यान रखा जा सके।

मिश्रा ने जोर देकर कहा कि बैंक बोर्डों में कर्मकार और अधिकारी निदेशकों की उपस्थिति एकलोकतांत्रिक और संतुलित प्रशासनिक दृष्टिकोण सुनिश्चित करती है जो कार्यस्थल के माहौल को कर्मचारियों के इनपुट और कल्याण को महत्व देने वाला बनाती है। इन निदेशकों की अनुपस्थिति न केवल कानूनी आदेशों का उल्लंघन करती है बल्कि निष्पक्ष और समावेशी प्रशासन के सिद्धांतों को भी कमजोर करती है। उन्होनें कहा कि बैकों के निदेशक मंडल में इनके प्रतिनिधित्व की अनुपस्थिति में जो नीतियां बोर्ड बना रहा है, उनमें कार्यबल व ग्राहकों के हितों की पूर्ण अनदेखी की जा रही है जिससे कर्मचारियों ,अधिकारियों का मनोबल क्षीण हुआ है और प्रबंधन निरंकुश हो रहा है।

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