आसान नहीं है जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटना

० ज्ञानेन्द्र रावत ० 
अब जलवायु परिवर्तन समूची दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है। इसमें कोई दो राय नहीं और किंचित मात्र भी संदेह नहीं है कि जलवायु परिवर्तन से जहां समुद्र का जलस्तर बढ़ने से कई द्वीपों और दुनिया के तटीय महानगरों के डूबने का खतरा पैदा हो गया है। यह भी कि जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझ रही पूरी दुनिया इसकी भारी आर्थिक कीमत चुका रही है। सबसे बड़ा संकट तो जमीन के दिनों-दिन बंजर होने का है। यदि सदी के अंत तक तापमान में दो डिग्री की भी बढ़ोतरी हुई तो 115.2 करोड़ लोगों के लिए जल, जमीन और भोजन का संकट पैदा हो जायेगा।

 संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस का कहना एकदम सही है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य अब भी पहुंच से बाहर हैं। यही कारण है कि जलवायु आपदा टालने में दुनिया पिछड़ रही है। समय की मांग है कि समूचा विश्व समुदाय सरकारों पर दबाव बनाये कि वह समझ सकें कि इस दिशा में हम पिछड़ रहे हैं और हमें तेजी से आगे बढ़ने की ज़रूरत है। यदि वैश्विक प्रयास तापमान को डेढ़ डिग्री तक सीमित करने में कामयाब रहे तो भी 96.1 करोड़ लोगों के लिए यह खतरा बरकरार रहेगा।


असलियत में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण मौसम के रौद्र रूप ने पूरी दुनिया को तबाही के कगार पर ला खड़ा किया है। जलवायु परिवर्तन की सबसे बड़ी वजह मरुस्थलीकरण है जिसका असर आने वाले दिनों में विकासशील देशों के 1.30 से 3.2.अरब लोगों पर पड़ेगा। आज समूची दुनिया में करीब 40 फीसदी जमीन बंजर हो चुकी है। इसमें यदि 6 फ़ीसदी घोषित रेगिस्तान को छोड़ दिया जाये तो शेष 34 फीसदी जमीन पर करीब 4 अरब लोग निर्भर हैं। इस पर सूखा, यकायक ज्यादा बारिश, बाढ़, खारापन, रेतीली हवाएं आदि के चलते बंजर होने का खतरा मंडरा रहा है। 

असलियत में आज दुनिया के 52 से 75 फीसदी देशों के करीब 50 करोड़ लोग भूमि क्षरण की मार से प्रभावित हैं। 2015 में यह आंकड़ा 50 करोड़ था जो सदी के आखिर तक दो गुणा हो जायेगा। यह स्थिति भयावह खतरे का संकेत है। यह भी कि दुनिया की तेजी से बढ़ रही आबादी और जलवायु परिवर्तन के कारण फसल की पैदावार दर में तीन फीसदी की गिरावट के अंदेशे से दुनिया में 2050 तक भोजन की भारी कमी का सामना करना पड़ेगा। फिर दुनिया की 50 फीसदी प्राकृतिक चारागाह की जमीन के नष्ट होने से जलवायु, खाद्य आपूर्ति और अरबों लोगों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो गया है। यह भूमि वैश्विक खाद्य उत्पादन का छठा हिस्सा है जिस पर दुनिया के दो अरब लोग निर्भर हैं।

जलवायु परिवर्तन से मानसिक सहित कई तरह की स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं खड़ी हो रही हैं। लैंसेट न्यूरालाजी जर्नल में प्रकाशित शोध में खुलासा हुआ है कि इसका माइग्रेन, अल्जाइमर आदि से पीड़ित लोगों पर ज्यादा नकारात्मक असर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन ने चिंता, अवसाद और सिजोफ्रेनिया सहित कई गंभीर बीमारियों को भी गहरे तक प्रभावित किया है। वैज्ञानिकों ने माना है कि न्यूरोलॉजिकल समस्या से जुड़े लोगों पर जलवायु परिवर्तन से पड़ने वाले प्रभाव पर ध्यान देने की बेहद जरूरत है।

 जलवायु के प्रभाव से स्ट्रोक और मस्तिष्क में संक्रमण के प्रमाण पाये गये हैं। इससे तनाव, अवसाद और आत्महत्या के विचार के मामलों में बढ़ोतरी हो सकती है। साथ ही दुनिया के 70 फीसदी श्रमिकों यानी 240 करोड़ की सेहत पर खतरा है। इसके लिए अत्याधिक गर्मी के दौरान काम करने वाले मजदूरों के लिए सुरक्षा और स्वास्थ्य सुनिश्चित कराना बेहद जरूरी है। जलवायु परिवर्तन के असर से जीव जंतु और पेड़ पौधे भी अछूते नहीं रहे हैं। जंगलों की अंधाधुंध कटाई और तेजी से हो रहे औद्योगीकरण ने ईकोसिस्टम को भी जबरदस्त प्रभावित किया है। 

जलवायु परिवर्तन के कारण 30 फीसदी प्रजातियों का अस्तित्व पर खतरे में है। प्रतिकूल जलवायु के कारण जीव जंतुओं को अपना प्राकृतिक वास छोड़ना पड़ सकता है। साथ ही उनकी प्रजनन क्षमता भी प्रभावित होगी। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि जलवायु परिवर्तन जीवन के अधिकार की संवैधानिक गारंटी को प्रभावित करता है। यह बात सुप्रीम कोर्ट ने लुप्त प्रायः पक्षी ग्रेट इंडियन बस्टर्ड की सुरक्षा के लिए दायर याचिका पर निर्णय देते हुए कहा कि स्वच्छ पर्यावरण के बिना जीवन का अधिकार पूरी तरह से साकार नहीं हो सकता है।

जहां तक बच्चों का सवाल है, यूनीसेफ ने चेतावनी दी है कि यदि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ठोस कोशिश नहीं की गयी तो दुनिया में लगभग एक अरब बच्चे जलवायु संकट के प्रभावों के अत्यंत उच्च जोखिम का सामना करने को विवश होंगे। दरअसल बढ़ता तापमान, पानी की कमी और खतरनाक श्वसन स्थितियों का सबसे घातक प्रभाव बच्चों पर अधिक पड़ता है। जलवायु की कठोरता बच्चों के पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा, भविष्य की आजीविका, रोग प्रतिरोधक क्षमता के साथ साथ उनके सर्वांगीण विकास को प्रभावित करती है। भारत दुनिया के उन 23 देशों में शामिल हैं, जहां अत्याधिक उच्च तापमान के कारण बच्चों को जोखिम उठाना पड़ता है।

असलियत यह है कि जलवायु संकट की दुनिया बड़ी आर्थिक कीमत चुका रही है। जलवायु परिवर्तन से होने वाला नुकसान पहले के अनुमान से छह गुणा अधिक है। इस सदी के अंत तक यह 38 ट्रिलियन डालर हो जायेगा। हार्वर्ड और नार्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी के शोध से खुलासा हुआ है कि जलवायु संकट के कारण औसत आय अगले 26 वर्ष में लगभग पांचवें हिस्से तक गिर जायेगी। बढ़ते तापमान, भारी वर्षा और तीव्र चरम मौसम के कारण मध्य शताब्दी तक हर साल 38 ट्रिलियन डालर का नुक़सान होने का अनुमान है। जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित न करना इसके बारे में कुछ करने की तुलना में बहुत अधिक मंहगा है। शोध के अनुसार 1.8 डिग्री सेल्सियस दुनिया पहले ही गर्म हो चुकी है।

 1056 डालर प्रति टन नुक़सान होता है कार्बन उत्सर्जन से और 12 फीसदी की जीडीपी में गिरावट तापमान वृद्धि की वजह से होती है। विश्व मौसम संगठन के अनुसार बीते पचास सालों में बाढ़, सूखा, चक्रवात और तूफ़ान के रूप में जलवायु परिवर्तन के चलते 11,778 से अधिक आपदाएं आयीं हैं। इनमें तकरीब बीस लाख लोगों की मौत हुईं और 4.30 लाख करोड़ डालर से अधिक का नुक़सान हुआ है। मौसम वैज्ञानिकों के अध्ययन से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन से 2025 से 2050 के बीच गल्फ स्ट्रीम खत्म होने का खतरा मंडराने लगा है। इसका भारत पर भी बुरा असर पड़ेगा। मानसून चक्र बुरी तरह प्रभावित होगा, आंधी, तूफान और सूखे के बाद अचानक भारी बारिश भयानक तबाही लायेगी और महासागरों के भीतर प्राकृतिक संपदा को भारी नुक़सान होगा।

फिर जलवायु परिवर्तन से सुपरबग का दिनों-दिन बढ़ता खतरा महामारी का रूप लेता जा रहा है। असल में सुपरबग ऐसा वैकटीरिया है जिसपर ऐंटीबायोटिक दवाओं का कोई असर नहीं होता। कई बार तो एक से अधिक दवाओं को मिलाकर देने पर भी इसकी कोई गारंटी नहीं होती कि उन दवाओं का असर होगा या नहीं। चिकित्सा के क्षेत्र में यह सबसे बड़ी चुनौती है। 12.5 लाख लोग सालाना इसके कारण दुनिया में मर जाते हैं। आशंका जताई गयी है कि यदि अब भी नहीं चेते तो इससे 2050 तक एक करोड़ लोगों की मौतें होंगी और तकरीब 100 लाख करोड़ डालर का 2050 तक वैश्विक अर्थ व्यवस्था पर दबाव पड़ने की संभावना है।

 इसके निदान हेतु शोध एवं अनुसंधान जारी हैं लेकिन अभी तक कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आया है। इस बीच एक और चिंता जनक तस्वीर सामने आयी है कि अमेरिका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी ने जलवायु परिवर्तन के कारण चक्रवात की घटनाएं बढ़ने की आशंका जताई है। अध्ययन कर्ताओं ने कहा है कि समुद्र के बढ़ते जलस्तर और जलवायु परिवर्तन के कारण अगले कुछ दशकों में तटीय इलाकों में भीषण चक्रवात एवं तूफानों के बीच समय का अंतराल कम हो जायेगा यानी इस सदी के आखिर तक हर 15 दिन में कोई भीषण चक्रवात उठ सकता है।

जहां तक जलवायु लक्ष्यों का सवाल है, असल में इस बारे में उठाए गये कदम जलवायु लक्ष्यों के अनुकूल नहीं हैं और उनकी रणनीतियां अपर्याप्त और अस्पष्ट हैं। ऐसी हालत में जलवायु लक्ष्य पाना बेहद मुश्किल है। फिर जलवायु संकट से निपटने के लिए दुनिया में जो अभी प्रयास हो रहे हैं वे स्वैच्छिक हैं और नेट जीरो की घोषणाएं भी बाध्यकारी नहीं हैं। इस दिशा में जबतक कानूनी रूप से बाध्यकारी नीतियां नहीं होंगी, तब तक जलवायु लक्ष्यों को पाना मुश्किल है। सबसे बड़ी समस्या लोगों को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से बचाने की है। यूरोपीय मानवाधिकार अदालत का भी यही मानना है कि देशों का यह दायित्व है कि वह अपने नागरिकों को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से हर संभव बचाने का प्रयास करें।

 यहां इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जलवायु की रक्षा के लिए इतना पैसा कहां से जुटाया जायेगा। काप 28 सम्मेलन में भी इस बाबत हानि एवं क्षति कोष में शुरूआती रूप से 47.50 करोड़ डॉलर फंडिंग का अनुमान था। इस पर मेजबान यूएई ने 10 करोड़ डॉलर,यूरो यूरोपीय संघ ने 27.50 करोड़ डालर,अमेरिका ने 1.75. करोड़ डालर और जापान ने एक करोड़ डालर देने का वायदा किया था। जबकि इस बाबत विकासशील देशों को हर साल करीब 600 अरब डालर की ज़रूरत होगी जो विकसित राष्ट्रों द्वारा किए गये वादे से काफी कम है। ऐसी स्थिति में अमीर देशों पर अतिरिक्त टैक्स ही जलवायु संकट से उबार सकता है। 

जैसी कि काप 28 सम्मेलन में चर्चा और सहमति बनी थी। सहमति के अनुसार 2024 में आर्थिक रूप से संपन्न देशों में कार्बन उत्सर्जन पर 5 डालर प्रति टन की दर से कर लगाया जाये तो 2030 तक कुल 900 अरब डालर फंड इकट्ठा हो जायेगा। इसमें से 720 अरब डालर लास एण्ड डैमेज फंड के लिए और बाकी 180 अरब डालर सुरक्षित रखें जा सकेंगे। तभी कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है लेकिन मौजूदा हालात में इसकी संभावना न के बराबर है। ऐसी स्थिति में जलवायु लक्ष्य की प्राप्ति सपना ही रहेगा। मौजूदा हालात तो यही गवाही देते हैं।

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