वक़्फ़ संपत्ति सरकार की नहीं,मुसलमानों की दान की हुई निजी संपत्ति होती है

रईस अहमद ० 
एडवोकेट,दिल्ली हाई कोर्ट
नयी दिल्ली - 1911 में जब अंग्रेज़ी सरकार ने हिंदुस्तान की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली तबदील किया तो रायसिना हिल के चारो तरफ मुसलमानों की काफी सारी ज़मीन का अधिग्रहण किया। अंग्रेज़ी सरकार ने लुटियन को इसके डिज़ायन की ज़िम्मेदारी सौंपी तो ज़मीनों के अधिग्रहण में काफी ज़मीने वक़्फ़ और मुसलमानों की विरासतें भी शामिल थी। ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली 70 प्रतिशत वक़्फ़ की ज़मीन पर बसी है, और आज भी पूरे भारत में 8.5 लाख से भी अधिक वक़्फ़ संपत्तियां मौजूद है। जिनका रकबा 9 लाख एकड़ से भी अधिक है। 

यह सभी वक़्फ़ संपत्तियां वे संपत्तियां हैं जो मुसलमानों के पूर्वजों द्वारा समाज कल्याण के लिए दान की हुई है। अंग्रेज़ी हुकुमत के लिए लुटियन्स के इमारती डिज़ायन के मुताबिक़ दिल्ली के निर्माण के समय 1913 में वक़्फ़ संपत्तियों की देख रेख के लिए भारत में पहली बार मुसलमान वक़्फ़ वेलिडेशन एक्ट-1913 को लागू किया गया। जिसके बाद 1943-45 के बीच एक समझौते के तहत काफी सारी वक़्फ़ जायदादों को वापस किया गया जिसमें 123 वक़्फ़ संपत्तियां भी शामिल थी। इनमें मस्जिद, मज़ार, खानकाहें और क़ब्रिस्तान जैसी जगहों को मुसलमानों को वपिस किया गया। 

आज़ादी के बाद भारत में 1954 में वक़्फ़ एक्ट लागू किया गया। जिसकी धारा 9 के तहत 1964 में केंद्रीय वक़्फ़ काउंसिल का गठन किया गया। जिसका काम केंद्र सरकार को वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन के संबध्ं में एक सहालकार परिषद के तौर पर गठित किया गया।  दिल्ली के बेहद अहम 123 वक़्फ़ प्राॅपर्टीज़ को 1970 में सर्वे करके गजट नोटिफाई किया गया। जिसके मालिकाना हक़ के सिलसिले में पूर्व प्रधानमत्री श्रीमति इंदिरा गांधी के द्वारा 1974 में मुज़फ़फ़र हुसैन बर्नी कमेटी बनाई बनी। बर्नी कमेटी ने 1976 में अपनी रिपोर्ट में 274 वक़्फ़ जायदादों की पहचान कर सरकार को रिपोर्ट सौपी। उस रिपोर्ट के आधार पर 1984 में कांग्रेस सरकार ने इन 123 प्राॅपर्टीज़ को दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड के तहत मुसलमानों को वापस सौपंने का फैसला किया।

 जिसके खिलाफ मामले को बिगाड़ने के लिए इन्द्रप्रस्था विश्व हिन्दू परिषद(VHP) कोर्ट चली गई। जोकि 2011 तक अदालत में पेंडिंग रहा। इसी दौरान वर्ष 1995 वर्तमान वक़्फ़ एक्ट को पास कर भारत में लागू किया गया। गौरतल हैं कि उक्त 123 वक़्फ़ संपत्तियों की लिस्ट में पहले नंबर पर नई दिल्ली के आईटीओं पर स्थित जमियत उलामा हिन्द का दफ़तर, मस्जिद अब्दुल नबी है।

वक़्फ़ का इस्लामी इतिहास पैंगंबर मौहम्मद साहब के दौर से शुरू हुआ। जिसमें मदीना में 600 खजूर के पेड़ों का एक बाग़ लगाया गया था। जिसकी आमदनी से मदीना के ग़रीब लोगों की मदद की जाती थी। वक़्फ़ का सिद्वांत यह है कि जायदाद को इस तरह अल्लाह के नाम पर ख़ैरात करो कि न वह बेची जा सके न किसी को दिया जा सके और न उसमें विरासत जारी हो। बल्कि उसका मुनाफा ग़रीब अवाम को मिल सके, विधवाओं, यतीमों, बेसहाराओं की मदद की जाए और गुलामों को आज़ाद कराया जाए। इस्लमाी इतिहास के दूसरे ख़लीफा हज़रत उमर ने भी अपनी एक ज़मीन को वक़्फ़ के रूप में दान दिया था।

भारत में आज 32 अलग-अलग राज्य वक़्फ़ बोर्ड काम कर रहे हैं। यूपी जैसे कुछ राज्यों में दो वक़्फ़ बोर्ड शिया-सुन्नी भी गठित किए गए हैं। जिन्हें उस पंथ या फिरक़े की 15 प्रतिशत वक़्फ़ जायदाद होने के आधार पर गठित किया जाता है। 1995 के वक़्फ़ एक्ट को 2013 में संशोधित कर कुछ सुधार किए गए। जिसकी अन्य खूबियों के साथ वक़्फ़ के मामलों को कोर्ट कचेहरी में न ले जाकर वक़्फ़ एक्ट की धारा 83 के तहत तीन सदस्यीय ट्राइब्यूनल को यह शक्तियां दे दी गई। जिससे भारतीय न्यायलयों पर वक़्फ़ मुकदमों का भार कम किया जा सके। उक्त वक़्फ़ ट्राइब्यूनल में भी एक ज़िला जज चैयरमैन के तौर पर और ज़िलाधिकारी/समकक्ष व एक वक़्फ़ का जानकार सदस्य मामलों को निपटारा करते है। जिन्हें दिल्ली जैसे राज्यों में भी पिछले लगभग दो साल से गठित नहीं किया गया है।

2014 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने आम चुनावों से ठीक पहले दिल्ली की उन 123 जायदादों को बर्नी कमेटी की सिफारिशों के मुताबिक़ वक़्फ़ बोर्ड के हवाले कर दिया। जिसका विरोध विश्व हिन्दू परिषद(VHP) की तरफ से जारी रहा। जिसके चलते हाई कोर्ट के आदेश पर 2016 में पहली बार वनमेन कमेटी बनाई गई जिसकी रिपोर्ट में कहा गया कि इन संपित्तयों के मालिकाना हक के संबंध में वक़्फ़ कमिश्नर को फैसला लेने का अख़्तियार दिया जाए। वो रिपोर्ट कभी बाहर नहीं आ सकी, न ही दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड को और न ही केंद्रीय वक़्फ़ काउंसिल को दी गई।

 VHP के विरोध के चलते 2018 में टूमेन कमेटी बनाई गई जिसका वक़्फ़ बोर्ड ने विरोध किया और बोर्ड भी इसके खि़लाफ़ कोर्ट चला गया। बोर्ड का मानना था कि वक़्फ़ संपत्तियों के विवादों के निपटारे के लिए वक़्फ़ ट्राइब्यूनल पूरी तरह सक्षम हैं लिहाज़ा उक्त कमेटी का गठन ग़ैरक़ानूनी है। जिसके चलते वक़्फ़ बोर्ड ने अपना कोई पक्ष टूमेन कमेटी के आगे नहीं रखा, इसी बीच टूमेन कमेटी ने वक़्फ़ बोर्ड को सुने बिना ही अपनी रिपोर्ट डीडीए और एलएनडीओ के हक़ में दे दी। जिसके बाद पिछले साल 8 फरवरी 2023 को डीडीए ने इन वक़्फ़ जायदादों को हड़पने की साज़िश तैयार की।

 इन जायदादों पर गैरक़ानूनी तरीके से नोटिस चस्पा कर दखलअंदाज़ी शुरू कर दी और कोर्ट की हिदायत के बावजूद दिल्ली की कई वक़्फ़ नोईफाइड जायदादों को तोड़फोड़ करके बर्बाद कर दिया और ज़मीन पर नाजायज़ कब्ज़ा कर लिया। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार इस बात को दोहराया है कि जो एक बार वक़्फ़ हो जाती है वो संपत्ति हमेशा वक़्फ़ रहती है। न उसे बेचा जा सकता है न किसी को हमेशा के लियें दिया जा सकता है।

इस दौरान काफी बार दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड के तहत आने वाली जायदादों को विभिन्न सरकारी संस्थाओं के द्वारा कब्ज़ा करने, तोड़ फोड़ करने या जी-20 के नाम पर पूरी तरह नेस्तोनाबूद करने का काम भी किया गया। 700 साल पुरानी अंखूंदी मस्जिद को पूरी तरह सुबह होने से पहले ही नष्ट कर दिया गया। झांडेवालान में मामू-भांजा मज़ार का मामला रहा हो या नई दिल्ली में सुनहेरी बाग रोड के मज़ार से लेकर इलेक्शन कमीशन के दफतर के सामने के मज़ार का हो, सरकारी बुल्डोज़र ने अपना कहर ढहाने में कोई क़सर बाक़ी नहीं रखी। दिल्ली व केंद्र सरकार की खीचतान के चलते दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड का गठन पिछले साल से नहीं किया गया है।

 इतना ही नहीं बोर्ड का कार्यकाल पूरा होने के पश्तचात बहुत से अस्थाई कर्मचारियों को निकाल दिया गया। वक़्फ़ बोर्ड व काउंसिल को महीनों तक कर्मचारियों को व अन्य कल्याणकारी कार्यो के लिए सरकार से पैसा फराहम न कराना आम बात हो गई है। जिसके चलते बार-बार बोर्ड को अदालत का दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है। उस पर दिल्ली के उपराज्यपाल व सरकार ने वक़्फ़ बोर्ड का गठन न करके सरकारी अधिकारी अश्वनी कुमार को वक़्फ़ बोर्ड का प्रशासक (Administrator) नियुक्त कर दिया है। जिनकी नियुक्ति के खि़लाफ़ कोर्ट से भी कोई राहत नहीं मिल सकी। केन्द्र सरकार को चाहिए था कि बचे हुए राज्य वक़्फ़ बोर्ड के रूल्स-रेगुलेशन बनाने व उनको लागू कराने के लिए कुछ क़दम उठाती, वक़्फ़ की संपत्तियों पर अवैध सरकारी विभागों व मफिया के कब्ज़े हटवाती लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।

जैसा कि देश में देखा जा सकता है कि बाबरी मस्जिद पर फैसला आने के बाद देश में वक़्फ़ क़ानून और वक़्फ़ जायदादों पर नफ़रत का जो बाज़ार गर्म किया जा रहा है यह किसी से छुपा नहीं है। बाबरी के बाद ज्ञानवापी और मथुरा के मामले को भी बाबरी मस्जिद की तरह चुनावी मुददा बनाने में सरकारी तंत्र सरगर्म है, और कोर्ट की आंखों पर भी पर्दा डालकर असल हक़ीकतों से दूर रखा जा रहा है। बाबरी मस्जिद के फैसले के बाद न्यायप्रणाली पर आम लोगों का खासतौर से अक्लीयतों/अल्पसख्यकों का भरोसा टूटने लगा है। 

2019 में जब हम दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग में सलाहकार समिति के सदस्य थे उस समय के भाजपा के तत्कालीन पश्चिमी दिल्ली के सांसद प्रवेश वर्मा ने दिल्ली के कुछ ज़िलों के मस्जिदों, मज़ारों व मुस्लिम कब्रिस्तानों को कथित तौर पर अवैध बताकर उनके खि़लाफ़ उपराज्यपाल से कार्यवाही के लिए एक 58 संपत्तियों की सूची सौंपी थी। जिसमें कुछ वक़्फ़ की संपत्तियों के नाम भी शामिल थे। सांसद के उक्त कथित आरोपों की जांच के लिए एक पांच सदस्य जांच कमेटी का गठन किया गया। जिसके एक सदस्य के तौर पर हमने जांच की तब पाया कि सांसद के तमाम आरोप बेबुनियाद और राजनीतिक थे।

 170 पेजों से भी अधिक पेजों पर आधारित इस रिपोर्ट में हमने दिल्ली के 500 से भी अधिक वक़्फ़ के उन कब्रिस्तानों की लिस्ट खसरा नं. के साथ शामिल की थी जिनपर भूमाफिया या सरकारी विभागों के अवैध कब्ज़े हो चुके थे। जिसके अलावा 11 ऐसे कब्रिस्तानों की लिस्ट अलग से प्रकाशित की थी जिसपर भारतीय पुरतत्व विभाग ने क़ब्ज़ा किया हुआ है।

पिछले दिनों एक हैरतअंगेज़ बात यह देखने को मिली, जहां नई दिल्ली सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के तहत लगभग आधा दर्जन मस्जिदें आ रही हैं इनमें से कुछ सरकार की हेरीटेज कमेटी के मानकों पर खरी उतरने के बाद मुल्क की विरासत घौषित की गई हैं उनमें से सैंकड़ों साल पुरानी सुनहरी बाग मस्जिद को ढहाने के लिए नई दिल्ली नगरपालिका परिषद (छक्डब्) के ज़रिय गैरक़ानूनी नोटिस प्रकाशित कर पब्लिक से ओपिनियन मांगा गया। जिसका मामला हाई कोर्ट में लंबित है।

एक काबिले ग़ौर बात यह सामने आई कि वक़्फ़ की कई संपत्तियों को 1991 के एक नोटिफिकेशन से वजूद में आयी मज़हबी कमेटी (त्मसपहपवने ब्वउउपजजमम) के तुगलकी फरमान पर सुबह फजर से पहले ही अंधेरे में डीडीए के ज़रीय चोरों की तरह तोड़कर सब ज़मीदोज़़ कर दिया गया। हैरान करने वाली बात तो यह है कि इस मज़हबी कमेटी में कोई मज़हबी रहनुमा मौजूद नहीं है बल्कि दिल्ली के चंद पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी फैसला लेकर तमाम दलीलांे और सबूतों को दरकिनार करके वक़्फ़ की सैंकडों साल पुरानी इमारतों को ढहा दे रहे हैं। जिसमें असल क़ाबिज़ फरीक को सुनने का मौक़ा भी नहीं दिया जाता। इस पर दिल्ली हाई कोर्ट ने बड़े सख़्त लहजे में डीडीए से जवाब भी तलब किया था।

दिल्ली के झंडेवालान के करीब रानीझासी रोड पर 123 प्राॅपर्टीज़ में शामिल मामा भांजा की मज़ार को आधी रात को अंधेरे में बिना कोई मोहलत दिए चंद घंटों में ही तोड़ दिया गया। जबकि इस मज़ार पर दिल्ली हाई कोर्ट के स्टे और डीडीए को ज़्यादा दखलअंदाज़ी न करने की कोर्ट की हिदायत के बावजूद डीडीए ने मनमानी करके तहस नेहस़ कर दिया। आज वहां मज़ार का बिलकुल नामोनिशान मिटा दिया गया है। हालांकि वहीं पास ही में एक दूसरे अवैध धार्मिक स्थल को कोर्ट के आदेश के बावजूद नहीं हटाया गया है। जिसकी वजह से करोलबाग मेट्रो के मेन रोड पर बेइंतहा जाम रहता है।

डीडीए के ’दिल्ली मास्टर प्लान 2021’ के सेक्शन 10.2 के मुताबिक़ भी इन तारीख़ी इमारतों को ध्यान रखकर कोई भी विकास कार्य करने का प्रावधान रखा गया। लेकिन चाहे सुनहरी बाग़ मज़ार का मामला हो, या इलेक्शन कमीशन के आगे मज़ार या फिर काका नगर मज़ार, किसी भी मामले में उन उसूलों का कोई ख्याल नहीं रखा गया है।

वक़्फ़ जायदादें वो जायदादें हैं जो मुसलमानों के आबा-व-अजदाद ने अल्लाह के नाम पर अपनी ज़ाती या खरीद कर दान की हैं। जिनका इस्तेमाल मुल्क में ऐसे गरीब मज़लूमों के लिए होता है जिनका कोई सरमाया नहीं और अकसर वक़्फ़ जायदादों का इस्तेमाल बिना भेदभाव सभी को फायदा पहुंचाने के लिए किया जाता रहा हैं। जिसकी हिफाज़त के लिए वक़्फ़ एक्ट बनाया गया है जिसके तहत नेशनल लेवल पर वक़्फ़ जायदादों की देखभाल के लिए वक़्फ़ काउंसिल और सूबाई सतह पर वक़्फ़ बोर्ड बनाए गए हैं। वक़्फ़ कांउसिल का पहले कार्यकाल 5 वर्ष होता था जिसे घटाकर 3 वर्ष किया गया तथा बाद में एक वर्ष कर दिया गया। जहां पिछले दो साल से मोदी सरकार ने वक़्फ़ काउंसिल का गठन ही नहीं किया है। वक़्फ़ काउंसिल रूल्स के मुताबिक काउंसिल का सेक्रेट्री मुस्लिम होना चाहिए जहां एक अन्य धर्म के अधिकारी को सेक्रेट्री बनाकर रखा गया है। कर्मचारियों के कई मामलों को लंबित रखा जा रहां है। जहां 2014 के बाद वक़्फ़ बोर्ड की तरह हालत बद से बदतर हो गई है।

वक़्फ़ बोर्ड का चुनाव जब तक गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी की तर्ज़ पर कराकर सिखों की तरह मुस्लिमों को वक़्फ़ बोर्ड के गठन का सीधे तौर पर चुनने का अधिकार नहीं दिया जाएगा। वक़्फ़ बोर्ड के हालात में सुधार नामुमकिन है। भारत में वक़्फ़ बोर्ड पर उस पार्टी के लोगों को नियुक्त किया जाता है जिस पार्टी की राज्य में सरकार होती है। साथ ही सरकारी अधिकारी को ही वक़्फ़ को कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया जाता है। यहां सवाल यही पैदा होता है कि जब वक़्फ़ बोर्डो को सरकार ने अपने पंजों में पूरी तरह पहले ही जकड़ा हुआ है तो वह किस क़ानूनी सुधारो और बदलावों की बात कर रही है?

दरअसल मोदी सरकार की नफ़रत की राजनीति के इंधन के तौर पर यह वक़्फ़ संशोधन बिल लाया गया है तांकि 2024 में मिली शिकस्त से बुरी जीत से देश का ध्यान हटाया जा सके, और आगामी राज्यों के चुनावों में कुछ नुकसान की भरपाई हो सके। वक़्फ़ एक्ट 1995 में संशोधन का असल मक़सद कुछ खास धाराओं में बदलाव करके इसकी मज़बूज़ी को कमज़ोर करना है। जिसमें एक्ट की धारा 40 खासतौर पर निशाने पर है। जिसके तहत वक़्फ़ बोर्ड को किसी वक़्फ़ ज़मीन का सर्वे करके उसे वक़्फ़ के तौर पर रजिस्टर करने की शक्ति हासिल है। जहां सर्वे के लिए बोर्ड को किसी मंत्रालय या प्रशासनिक आदेश या अध्यादेश की ज़रूरत नहीं होती, और वह इस धारा के तहत खोई हुई या क़ब्ज़ा हो चुकी जायदादों को भी वापिस पाने का अधिकार रखता है। 

इसके साथ ही इसकी सुनवाई बोर्ड व ट्राइब्यूनल के बाद किसी अन्य अदालत में नहीं की जाती। सिर्फ उच्च न्यायालयों या उच्चतम न्यायालय में ही सुनवाई हो सकती है। साथ ही धारा 54 वक़्फ़ बोर्ड के कार्यकारी अधिकारी को वक़्फ़ संपत्ति से अवैध कब्ज़ा हटाने की शक्ति प्रदान करती है। परंतु सरकारों के उदासीन रवैये के चलते वक़्फ़ बोर्ड को कभी मज़बूत होने ही नहीं दिया गया। जिनपर माफियाओं के साथ सांठगाठ कर वक़्फ़ संपत्तियों पर अवैध क़ब्ज़ों का सिलसिला ढड़ल्ले से जारी है। देश में रक्षा व रेलवे के बाद वक़्फ़ की सबसे अधिक जायदादे होने के बावजूद उसके मालिक मुसलमान सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक दलितों से भी बदतर हालात में ज़िन्दगी जीने को मजबूद है। आखि़र ऐसा क्यों है?

इन तमाम बातों के बाद होना तो यह चाहिए था कि वक़्फ़ की हालत सुधारने के लिए केन्द्र की मोदी सरकार के ज़रीय वक़्फ़ जायदादों के विकास का काम किया जाता। इसके बरअक्स अल्पसंख्यकों के लिए मिलने वाले बजट को ही कम कर दिया गया है। इसके साथ ही पिछले पार्लिमेन्ट सेशन में भाजपा के सांसद श्री हरनाथ यादवजी द्वारा वक़्फ़ एक्ट को ही ख़त्म करने के लिए राज्यसभा में प्राइवेट मेंबर बिल लाया गया था। 

यह मामला यहीं नहीं रूका अब केंद्र की सरकार ही 40 संशोधनों के साथ वक़्फ़ एक्ट-1995 को कमज़ोर करने पर आमादा है और कैबिनेट ने इसकी मंजूरी दे दी है जोकि संसद में पास कराने के लिए लाया गया जहां विपक्ष के पुरज़ोर विरोध के चलते कमेटी के पास भेज दिया गया है। जिसकी असल वजह वक़्फ़ एक्ट के ज़रिय वक़्फ़ बोर्ड की उस शक्ति को कमज़ोर करना है जिससे वह अपनी वक़्फ़ संपत्तियों को वापस लेने का अख्तियार रखता है। जिसपर परिसीमन अधिनियम (Limitation Act-1963) भी लागू नहीं होता। जिसके तहत कोई भी व्यक्ति किसी भी निजि संपत्ति पर 12 साल तक और सरकारी संपत्ति पर 30 साल तक बिना विवाद के रहते हुए मालिकाना हक़ का दावा कर सकता है।

 नए शंशोधन में वक़्फ बोर्ड में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने की बात कही जा रही है हालांकि वक़्फ़ बोर्ड में महिलाओं की हिस्सेदारी पहले भी रही है। गजट में इसका पहले से ही प्रावधान मौजूद है। दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड के पिछले कार्यकाल में सात सदस्यों में दो महिला सदस्य भी शामिल थी। दिलचस्प बात तो यह है कि जहां सरकार मुस्लिम वक़्फ़ बोर्ड में अन्य धर्म के लोगों को इसमें शामिल करने की बात इस बिल में कर रही है। तो क्या सरकार अन्य धर्मो के जैसे हिन्दु शिराइन बोर्ड या सिख व अन्य बोर्ड में भी मुस्लिमों व अन्य धर्मो को प्रतिनिधित्व दिलाने के लिए क़ानूनों में बदलाव करने की हिम्मत जुटा पाएगी? ज़ाहिर बात है नहीं। क्योंकि यह संविधान के मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद 26 और 14 की सीधे तौर पर खि़लाफ़वर्ज़ी करता है।

सुनहरी बाग जैसी ये इमारते हमारे खूबसूरत और विशाल मुल्क हिन्दोस्तान की उस अज़ीम तेहज़ीब की जड़ों का हिस्सा है जिसे काटकर हिन्दोस्तान रूपी यह विशाल सांस्कृतिक पेड़ नुमा देश का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता। देश के अज़ीम मुजाहिद-ए-आज़ादी और संविधान निर्माता हसरत मोहानी ने सरकारी घर न लेकर इसी मस्जिद से बैठकर आज़ाद भारत का संविधान बनाने में अपनी ज़िम्मेदारी को अंजाम दिया था। लिहाज़ा आज इस देश की सांझी संस्कृति को बचाने का ज़िम्मा हम सबका है। सिर्फ सबका साथ, सबका विकास का नारा लगाने से देश तरक्की नहीं करेगा।

 दुनियाभर में भारत की पहचान उस गांधीवादी देश से है जहां अश्फाकउल्ला खान ने मुल्क की आज़ादी के लिए अपनी जान कुर्बान की तो वहीं वीर अब्दुल हमीद ने हंसते हसते शहीद होकर देश के मान को बरक़रार रखा। भगत सिंह आज भी देश के लिए मिसाल हैं। जिनका बलिदान इस महान देश के इतिहास के पन्नों में आज भी सुनहरे अल्फ़ाजों में दर्ज है। आज हम सबको मिलकर इन विरासतों को बचाने की ज़रूरत है। जहां आने वाला कल इन्हें देखकर भारत के बड़े दिल और महानता का गुणगान कर सके और उन स्वतन्त्रता सेनानियों को याद कर सके जो इन इमारतों से वाबस्ता हैं।

वक़्फ़ में कब, क्या हुआ ? 1911ः दिल्ली को राजधानी बनाने के लिए अंग्रेज़ी हुकुमत का फैसला। 1913ः मुसलमान वक़्फ़ वेलिडेशन एक्ट-1913 1943-45ः वक़्फ़ (123 सहित) प्राॅपर्टीज़ की समझौते के तहत वापसी। 1954ः वक़्फ़ एक्ट-1954 (आज़ादी के बाद) 1964ः केंद्रीय वक़्फ़ काउंसिल का गठन 1974ः बर्नी कमेटी का कयाम 1976ः बर्नी कमेटी ने रिपोर्ट सौंपी 1984: बर्नी कमेटी के मुताबिक़ 123 वक़्फ़ जायदादों को दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड को 1 रुपये किराये पर देने का कैबिनेट का फैसला 1984ः VHP की मुखालफत, कैबिनेट के फैसले के खि़लाफ़ कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया

1991ः प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट 1991ः रिलिजियस कमेटी नोटिफिकेशन(दिल्ली सरकार) 1995ः वक़्फ़ एक्ट-1995 लागू हुआ 2007ः दिल्ली मास्टर प्लान-2021 लागू हुआ 2013ः वक़्फ़ अमेंडमेंड एक्ट-2013 लागू हुआ 2014ः 123 जायदादों को डिनाॅटिफाइड करके दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड को सौंपा 2016ः एक बार फिर VHP की मुखालफत और कोर्ट का रूख 2016ः कोर्ट के आदेश पर केद्र सरकार की वन मेन कमेटी का गठन 
2018ः टूमेन कमेटी का गठन 2023ः जी-20 के नाम पर नई दिल्ली में स्थित कई मज़ारों को तोड़ा गया। 

9 दिसंबर 2023ः वक़्फ़ एक्ट के खि़लाफ़ सांसद हरनाथ सिंह यादव द्वारा राज्यसभा में प्राईवेट मेंबर बिल।
24 दिसंबर 2023ः सुनहेरी बाग मस्जिद डेमोलिशन नोटिस। 3 जनवरी 2024ः मामा भांजा मज़ार डेमोलिशन। 3 अगस्त 2024ः वक़्फ़ एक्ट में संशोधन के लिए केबिनेट की मंज़ूरी 8 अगस्त 2024ः वक़्फ़ एक्ट में संशोधन करने के लिए संसद में बिल पेश। जहां विपक्ष के पुरज़ोर विरोध के बाद 31 सदस्य की संसदीय संयुक्त समिति के हवाले।

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