समावेशी विकास के लिए वंचित और पिछङे वर्ग को आत्मनिर्भर बनाएँ : भाणावत

० आशा पटेल ० 
जयपुर। पूर्व ग्रामीण विकास सचिव एवं शैक्षणिक आंदोलन से जुड़े राजेन्द्र भाणावत ने कहा है कि देश का समावेशी विकास तभी सम्भव है जबकि वंचित वर्ग, अति पिछङे और पिछङे वर्ग को आत्मनिर्भर बनाया जाए। ग्राम्य जीवन को आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बनाने के लिए जी.डी.पी. के साथ प्रति व्यक्ति आय में भी बढोतरी हो और पूँजी और तकनीकी कौशल की कमी दूर की जाए । अर्थ शक्ति का विकेन्द्रीकरण हो । मूलभूत सुविधाएँ जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और गरिमापूर्ण जीवन के लिए जॉबलैस ग्रोथ की जगह एम्प्लोयमैन्ट ओरिएन्टेड ग्रोथ का होना आवश्यक है तभी भारतीय संविधान में वर्णित उद्देश्यों की पूर्ति होगी।
भाणावत योग साधना आश्रम में 'आर्थिक एवं सामाजिक विषमताएँ : समस्या और समाधान' विषयक मुक्त मंच, जयपुर की 89 वीं मासिक संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में बोल रहे थे। संगोष्ठी की अध्यक्षता डॉ नरेन्द्र शर्मा 'कुसुम' ने की। संगोष्ठी का संयोजन 'शब्द संसार' के अध्यक्ष श्रीकृष्ण शर्मा ने किया। अध्यक्ष डॉ. नरेन्द्र शर्मा कुसुम ने कहा कि राजतन्त्र में समता-विषमता पर प्रजा को अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं था । संविधान लागू होने पर आशा थी कि सब समान हैं और समता तथा समरसता के कारण कहीं कोई भेदभाव नहीं होगा किन्तु ऐसा नहीं हुआ। संविधान मनुष्य के मनोविज्ञान को नहीं बदल पाया। असमानता और विषमता बढती चली गई। राजनीति के घिसे-पिटे नुस्खे अब अपनी धार खो चुके हैं । राजनीतिज्ञों के उपदेश असरदार नहीं रहे।
पूर्व आईएएस अरुण ओझा ने कहा कि जब पूँजीवाद आस्तित्व में आया तो जो पूजी, विनिमय को सरल, सुगम एवं सुव्यवस्थित करने के लिए थी वही पूँजी कालान्तर मे कुछ ही हाथों में सिमट गई। उन्होने कहा कि जिस प्रकार सत्ताधीश जनता को चुग्गा डालकर अपने जाल में फँसाता है वैसे ही सत्ता को जनता को चुग्गा डालकर अपने चंगुल में फँसाए रखना चाहिए। पूर्व मुख्य अभियन्ता दामोदर चिरानिया ने कहा कि सामाजिक-आर्थिक विषमता के कई कारण हैं। नस्ल भेद, लिंग भेद, वर्ग , धार्मिक, जातिगत उच्चता के कारण गैरबराबरी और सामाजिक प्रभुता के कारण असमानता और विसंगति बढ़ी है। राज्य शक्ति, धन शक्ति, आनुवंशिक पृष्ठ भूमि भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से उत्तरदायी है। प्रजातान्त्रिक सरकारें असमानता से मुक्ति के लिए फ्री बीज की व्यवस्था करती है।

वरिष्ठ साहित्यकार एवं व्यंग्यकार फारूक आफरीदी ने कहा कि आर्थिक और सामाजिक विषमताओं को करने ले लिए अवसरों की समानता और आर्थिक बराबरी की जरूरत है।इसके लिए संविधान के निर्देशों का पालन हो और प्रत्येक नागरिक अपने अधिकारों के प्रति जागरुक और कर्तव्य निष्ठ हों। पत्रकार सुधांशु मिश्र ने कहा कि सामाजिक असमानता एवं आर्थिक विषमता के लिए तकनीक दोषी नहीं है। इसका उपयोग, दुरुपयोग उपयोगकर्ता पर निर्भर है। उसका उपयोग विनाशकारी कार्यो में करेंगे तो तकनीकी का कोई दोष नहीं है । हमारे संविधान ने अवसरों की समानता , समता, समरसता को अंगीकार किया है पर आज तो गैर बराबरी और गरीबी का बोलवाला है।

 संविधान की धज्जियाँ उङाई जा रही है। पूँजी का आविष्कार विनिमय में सहूलियत के लिए किया गया था पर वह शोषण का उपकरण बन गई है। अब सामान्य जन को जागना होगा और अपने संविधान में निहित अधिकारों को पहचानना होगा। वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र बोङा ने कहा कि यद्यपि हमारी जी.डी.पी. बढ रही है पर परकैपिटा जीडीपी नहीं बढ़ रही है। इसका मुख्य कारण सम्पत्ति और आय का वितरण न्यायोचित नहीं हो रहा है, भले ही संविधान में बराबरी और समानता को जोरदार तरीके से प्रतिपादित किया गया है।प्रखर शिक्षाविद सुभाष गुप्त ने कहा कि आज धर्म के ठेकेदारों ने धर्म का सत्यानाश कर दिया है। 

जो बातें वेद और पुराणों में कहीं नहीं हैं उन्हे धर्म की आङ में जमकर प्रचारित किया जा रहा है । पूर्व बैंकर एवं चिन्तक इन्द्र भंसाली ने कहा कि हमारा समाज ऊँच-नीच, अमीर गरीब, छोटे काम बङे करने वालों में बँटा हुआ है। सामाजिक समानता और समरसता में कमी से समाज में एक दूसरे की स्वीकार्यता घटी है। आर्थिक विषमता का मुख्य कारण गरीबी होने के साथ धनाढ्यों द्वारा कामगारों का शोषण है। ऐसे में समानता की आवाज हर नागरिक को उठानी होगी।

संगोष्ठी के संयोजक शब्द संसार के अध्यक्ष श्रीकृष्ण ने कहा कि आज भारत नवीनीकरण उर्जा के क्षेत्र में विश्व के चौथे स्थान पर है। इसमें एक दशक में 400% वृद्धि हुई । हम 21000 करोङ रुपये वाले रक्षा उत्पाद हैं। भारत का वन्दे रेलों ,ब्रह्मोस्त्र मिसाइलें तथा मोबाइल के क्षेत्र में वर्चस्व बढ़ा है तो 2024 में अमीरों के पास राष्ट्रीय सम्पति का 39.5% था जबकि गरीबों की 50% आबादी के पास केवल 6.% हिस्सा ही था। संगोष्ठी में पूर्व आईएएस आर.सी. जैन, आर.पी.गर्ग, सुमनेश शर्मा ने भी विचार व्यक्त किए। भूपेन्द्र भरतपुरी और विट्ठ्ल पारीक ने कविताओं के जरिए आर्थिक विषमताओं को अभिव्यक्त किया। परमहंस योगिनी डॉ. पुष्पलता गर्ग ने समापन उद्बोधन किया।

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