पुस्तक ‘अच्युतानंद मिश्र : समावेशी शब्द साधक’ का लोकार्पण

० योगेश भट्ट ० 
नई दिल्ली। वरिष्ठ पत्रकार,संपादक और लेखक अच्युतानंद मिश्र के जन्मदिन पर इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में उनके व्यक्तित्व, कृतित्व और नेतृत्व पर केन्द्रित पुस्तक ‘अच्युतानंद मिश्रः समावेशी शब्द साधक’ का लोकार्पण किया गया। पुस्तक के संपादक डॉ. मनीषचंद्र शुक्ल हैं और इसका प्रकाशन प्रलेक प्रकाशन, मुंबई ने किया है। पुस्तक का लोकार्पण आईजीएनसीए के अध्यक्ष रामबहादुर राय, सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी, कलानिधि प्रभाग के अध्यक्ष व डीन (प्रशासन) प्रो. रमेश चंद्र गौड़, माधवराव सप्रे संग्रहालय, भोपाल के संस्थापक-संयोजक विजयदत्त श्रीधर, मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल के मंत्री संचालक कैलाशचंद्र पंत और प्रसिद्ध साहित्यकार प्रो. चंद्रकला त्रिपाठी और प्रो. कृपाशंकर चौबे ने किया। इस अवसर पर अच्युतानंद की भी गरिमामय उपस्थिति रही। लोकर्पण में पुस्तक के संपादक डॉ. मनीषचंद्र शुक्ल और प्रकाशक जितेंद्र पात्रो भी उपस्थित थे।
कार्यक्रम के दौरान अच्युतानंद मिश्र के सहयोगी रहे साहित्यकारों और पत्रकारों ने अपने संस्मरण साझा किए। सबके संस्मरण से यह बात समान रूप से उभरी कि अच्युतानंद जी परिवार के बड़े की तरह सबकी बहुत चिंता करते हैं और अत्यंत समावेशी हैं। कोई भी उनसे अपना दुख-सुख निःसंकोच कह सकता है। उनके अंदर ममत्व और अपनत्व का भाव अद्भुत है। हिन्दी के प्राध्यापक रहे प्रो. रामाश्रय रत्नेश कहा कि उनमें निर्णय लेने की गजब की क्षमता है। उनका व्यक्तित्व चुंबकीय था। वरिष्ठ पत्रकार अरुण त्रिपाठी ने कहा कि अच्युता जी पत्रकारिता के अजातशत्रु हैं। 

ट्रिब्यून, चंडीगढ़ के संपादक राजकुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार और पत्रकारिता के अध्यापक प्रो. गोविंद सिंह, माइक्रोसॉफ्ट के निदेशक बालेंदु शर्मा दाधीच, वरिष्ठ पत्रकार संत समीर, भारतीय जनसंचार संस्थान के प्रो. प्रमोद कुमार, वरिष्ठ साहित्यकार नीरजा माधव,  आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट के अभय प्रताप, वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी, प्रसिद्ध साहित्यकार ज्योतिष जोशी ने अपने संस्मरण साझा किए। अच्युतानंद मिश्र  ने सभी वक्ताओं के प्रति आभार प्रकट करते हुए कहा कि उनके प्रति जितने अच्छे-अच्छे विशेषणों का प्रयोग वक्ताओं ने किया, वह उनका प्रेम है। उन्होंने कहा, “मैंने कोई नया काम नहीं किया है, कोई अनोखा काम नहीं किया है। मैं आप सब के बीच से ही हूं और आप सब मेरे बहुत प्रिय हैं।”

उन्होंने बीते दौर के पत्रकारों और संपादकों से लेकर आज के दौर की पत्रकारिता पर भी बात की और कहा कि हर स्थिति में संपादकों को संघर्ष करना पड़ा है। उन्होंने कहा, “भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी तक जिन लोगों ने उस दौर की पत्रकारिता की है, वो तो बहुत महान थे, लेकिन उसके बाद की जो पीढ़ी हुई, 1950 के बाद तो उस समय पराड़कर जी भी जीवित थे, अज्ञेय जी जीवित थे, तमाम नई पीढ़ी के संपादक जीवित थे और उन लोगों ने कम संघर्ष नहीं किया है।” उन्होंने कहा, “उन संपादकों को भी हम लोगों ने देखा है, ये हमारे सामने ही हुआ है, चाहे अज्ञेय जी रहे हों, या विद्यानिवास मिश्र जी रहे हों, किन-किन ढंग से उनके प्रबंधन ने उनको अपमानित किया,

 किन परिस्थितियों में रखा, तो ये सारी तस्वीरें हमारे सामने हैं। हिन्दी पत्रकारिता की जो स्थिति बन गई है, उसमें टेक्नोलॉजी के नाम पर मालिकों ने सबसे पहले अपना विचार बदल दिया, अपनी परिस्थितियां बदल दीं। मुझे याद है कि प्रिंट मीडिया के बाद जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आया था, तो उस समय यह समझा गया था कि प्रिंट मीडिया खत्म हो जाएगा, अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से आगे बात डिजिटल मीडिया आ गया है। तो हर परिस्थिति में संपादकों को संघर्ष ही करना पड़ा है, क्योंकि मालिकों की भूमिका बदल गई है। और स्वाधीनता के बाद के भी संपादक, जिनका जिक्र किया मैंने, वे सब लोग इस संघर्ष के साक्षी रहे हैं, शामिल रहे हैं। आज के संपादक तो मालिकों के साथ ही रहते हैं, मालिकों के हिसाब से ही व्यवहार करते हैं। अपने सहयोगियों के लिए स्टैंड लेने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। मालिकों से मिलकर ही वे अपने साथियों के साथ व्यवहार करते हैं।”

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए रामबहादुर राय ने कहा कि अच्युतानंद को लेकर वक्ताओं ने जो विचार प्रकट किए हैं, उनमें से किसी ने अतिरंजना नहीं की है, बल्कि अच्युतानंद जी का व्यक्तित्व और कृतित्व सचमुच विराट है। हर व्यक्ति भिन्न है, लेकिन अच्युतानंद से अभिन्न है और ये भिन्नता यहां प्रकट हुई है तथा अभिन्नता भी प्रकट हुई। उन्होंने यह भी कहा कि लोकार्पित पुस्तक में सभी पक्ष आए हैं, लेकिन पत्रकार और संपादक रहते अच्युतानंद ने जन आंदोलनों को जो सहयोग किया है, वह भी लोगों के सामने आना चाहिए। और, यह सब एक आत्मकथात्मक पुस्तक में आना चाहिए।

उन्होंने यह भी कहा, “इस पुस्तक में महाश्वेता देवी का अच्युता पर लिखा हुआ जो पहला लेख है, वह पढ़िए। आज अपेक्षित विचार का पोषण कैसे किया जाए, यह प्रश्न महाश्वेता ने उठाया है और इसका उत्तर कोई देता है, तो वे अच्युतानंद मिश्र हैं। वह शतायु हों, स्वस्थ रहें और ऐसे ही हमारा मार्गदर्शन करते रहें।”
मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मंत्री संचालक  कैलाश चंद्र पंत ने अच्युतानंद मिश्र के साथ अपने सम्बंधों को बहुत आत्मीयता से याद किया और कहा कि जैसा पुस्तक का शीर्षक है, अच्युतानंद समावेशी शब्द साधक हैं। शब्द की साधना और ब्रह्म की साधना समान है। शब्द की साधना हो जाती है, तो साधक समावेशी हो जाता है। शब्द के अभाव में कोई विचार जन्म ले ही नहीं सकता है।

सप्रे संग्रहालय, भोपाल के संस्थापक-संपादक विजयदत्त श्रीधर ने अच्युतानंद मिश्र जुड़े कई प्रेरक संस्मरण सुनाए। उन्होंने कहा, “मेरी उनसे बहुत निभी। मेरा जो एकांगी दृष्टिकोण था, उनसे मिलने के बाद उसका विस्तार हुआ। अच्यतानंद के कुलपति काल में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ने मुझे बहुत सिखाया। उसका श्रेय अच्युता जी को ही जाता है।”

आईजीएनसीए के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने भी अच्युतानंद जुड़े कुछ संस्मरण सुनाए, जिसमें कुर्ता से जुड़ा एक संस्मरण भी शामिल था। उन्होंने कहा, “अच्युता जी ने एक बार मुझसे पूछा कि मेरे कुर्ता का नाप क्या है और फिर मेरे लिए वह एक बहुत सुंदर कुर्ता लेकर आए। मैंने आज वही कुर्ता पहना है। आज भी इस कुर्ते का रंग जरा भी हल्का नहीं हुआ है, बल्कि पक्का ही हुआ है। उसी तरह, समय के साथ अच्युता और मेरे सम्बंध गहरे ही हुए हैं। यह जीवन का सम्बंध है।” प्रो. चंद्रकला त्रिपाठी ने कहा कि मौसा जी (अच्युतानंद मिश्र) सबकी बहुत चिंता करते थे। उन्होंने जीवन में बहुत कुछ सिखाया है।

इससे पूर्व, प्रो. रमेश चंद्र गौड़ ने स्वागत वक्तव्य देते हुए अच्युतानंद मिश्र को जन्मदिन की शुभकामना दी और अतिथियों का परिचय दिया। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष प्रो. कृपाशंकर चौबे ने प्रास्ताविक वक्तव्य दिया और कार्यक्रम का संचालन किया। साथ ही, उन्होंने कुछ संस्मरण भी सुनाए। अंत में, पुस्तक के संपादक डॉ. मनीषचंद्र शुक्ल ने अतिथियों एवं आगंतुकों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन किया।

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